मिथिला की राजकुमारी सीता जी का जीवन परिचय

मिथिला की राजकुमारी सीता जी का जीवन परिचय

संसार के इतिहास में जिन सबसे महत्वपूर्ण महाकाव्य की रचनाओं का उल्लेख किया जाएगा उनमें से सबसे श्रेष्ठ महाकाव्यों में रामायण और महाभारत का नाम सर्वप्रथम लिया जाएगा। 

यह दो महाकाव्य हर मनुष्य के जीवन के वे आवश्यक दर्शन हैं जिनको अपने जीवन में उतारे बिना किसी को भी संसार से पार नहीं पाया जा सकता। 

अतः इन महाकाव्यों के हर पात्र का हम सभी मनुष्यों के जीवन में सांकेतिक रूप से एक संदेश देने का कार्य करता है। प्रत्येक पात्र अपने आप में एक दृष्टि देता है, हमारे समाज में हमको दिए हुए हर पात्र की झलक कहीं न कहीं दिख ही जाएगी। हर पात्र का अपना मूल स्वभाव और तत्व है जिसका प्रतिबिंब हम अपने अंदर देख सकते हैं। 

आज हम रामायण के एक ऐसे ही महत्वपूर्ण पात्र के जीवन से मिलने जा रहे हैं जिनके बिना ना राम ही पूरे हैं और ना रामायण पूरी होगी । हम पढ़ने जा रहे हैं मिथिला की राजकुमारी राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री सीता जी के जीवन के बारे में जो बाद में अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार श्री रामचंद्र की अर्धांगिनी हुईं। 

रामायण में हममें से अधिकतर सीता जी को कुछ घटनाओं से ऊपरी तौर पर ही परिचित हैं जैसे उनके जन्म के बारे में, श्री राम के साथ स्वयंवर से, उनके द्वारा सोने के हिरण को देखने से और रावण द्वारा उनके हरण से आदि…मौटे तौर पर एक आम व्यक्ति को सीता जी के जीवन का इन्हीं घटनाओं के माध्यम से परिचय है। 

लेकिन आज हम प्रयास करेंगे कि सीता जी के जीवन को और अधिक जान पाएं। भारतवर्ष की प्रत्येक स्त्री को सीता जी के बारे में जितना जानना चाहिए उतना शायद अभी तक चाहें स्त्री हो या पुरुष कोई भी जान नहीं पाया है। चलिए कोशिश करते हैं मिथिला की राजकुमारी जानकी, प्रभु श्री राम के प्रति अभीष्ट पातिव्रत धर्म को अपनाने वाली देवी सीता के जीवन को जानने की और उनके जीवन से प्रेरणा लेकर भारतवर्ष की प्रत्येक स्त्री को उनके जैसी ऊंची चेतना, भक्ति, धैर्य मिले। 

सीता जी के जन्म की कथा

जिस तरह प्रभु श्री राम की मर्यादा का कोई सानी नहीं उसी तरह माता सीता जी के चरित्र और व्यक्तित्व अपने आप में अद्भुत है। इसका कारण है उनका जन्म, जिस तरह से सीता जी के जन्म को लेकर कथाओं में उल्लेख है वह अपने आप में यह सिद्ध करता है कि सीता जी कोई सामान्य स्त्री या मनुष्य नहीं थीं। 

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, एक बार रावण जो दसग्रीव के नाम से भी जाना जाता था, हिमालय के वन में घूम रहा था। तभी उसने ब्रह्मर्षि कुशध्वज की अत्यंत सुंदर पुत्री वेदवती को ऋषिप्रोक्त विधि से संलग्न देखा। उसे देख कर वह मोहित हो गया। 

उसने वेदवती से उसकी तपस्या करने का कारण जानना चाहा। जब उसने बताया कि उसके पिता तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु से उसका विवाह करना चाहते थे किंतु बलाभिमानी दैत्यराज शंभु द्वारा उसके पिता हत्या कर दी गई। 

अतः उसने अपने पिता के मनोरथ को पूरा करने के लिए भगवान नारायण को पति के रूप में पाने की प्रतिज्ञा की है, इसीलिए वह यह महान तप कर रही है। यह सब जान लेने पर भी रावण ने उसे अपनी पत्नी बनाने का प्रलोभन कई बार दिया किंतु वह व्यर्थ गया।

जब वह नहीं मानी तब रावण ने अपने हाथों से उसके केश पकड़ लिए। इस पर क्रोधाविभूत होकर वेदवती ने अपने हाथों से अपने केशों को मस्तक से अलग कर दिया। फिर जलकर मरने के लिए उतावली हो, अग्नि की स्थापना करके उस निशाचर को दग्ध करती हुई सी बोली, ‘तुझ पापी आत्मा ने इस वन में मेरा अपमान किया है, इसलिए मैं तेरे वध के लिए फिर उत्पन्न होऊंगी। 

यदि मैंने कुछ भी सत्कर्म, दान और होम किए हों तो अगले जन्म में सती साध्वी अयोनिजा कन्या के रूप में प्रकट होऊं तथा किसी धर्मात्मा पिता की पुत्री बनूं। और अग्नि में प्रवेश कर अपने जीवन का अंत कर लिया। 

तदंतर दूसरे जन्म में वह कन्या पुनः एक कमल से प्रकट हुई। लेकिन उस राक्षस ने वहां से उस कन्या को प्राप्त कर लिया तथा अपने घर ले गया। उसने अपने मंत्री को वह कन्या दिखाई। 

बालक बालिका के लक्षणों को जानने वाले उस मंत्री ने कन्या को अच्छी तरह देखकर रावण को बताया, ‘यह सुंदर कन्या यदि घर में रही तो आपकी मृत्यु का कारण होगी’। इस पर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। तत्पश्चात वह कन्या समुद्र में बहती हुई राजा जनक के यज्ञमंडप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुंची। 

एक दिन जब राजा जनक स्वयं हाथ में हल लेकर यज्ञ के योग्य क्षेत्र को जोत रहे थे, तभी वह कन्या भूमि से प्रकट हुई। राजा जनक की दृष्टि उस पर पड़ी। उसके सारे अंगों में धूल लिपटी हुई थी। उस अवस्था में उसे देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन दिनों उनके कोई संतान नहीं थी, इसलिए स्नेहवश राजा जनक ने उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया और उसे पुण्यकर्मपरायणा बड़ी रानी को सौंप दिया जिन्होंने मातृ समुचित सौहार्द से उसका लालन पालन किया। 

सीता का नाम कैसे पड़ा? 

सीता जी मिथिला नरेश जनक जी की ज्येष्ठ पुत्री थीं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार मिथिला में एक बार अकाल पड़ा था। तब राजा जनक को सलाह दी थी कि वे वैदिक अनुष्ठान करके खेतों को स्वयं हल चलाएंगे तो वर्ष होगी और अकाल समाप्त हो जायेगा। 

वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को राजा जनक खेत में हल चला रहे थे उसी दौरान एक बक्से या कलश से उनका हल टकराया। उन्होंने उसे धरती से निकला और देखा तो उसमें एक कन्या शिशु थी। 

क्योंकि राजा जनक जब खेतों में हल जोत रहे थे तो हल का अग्र भाग से खींची गई रेखा(सीता) से प्रकट हुई थी, इसीलिए उस कन्या शिशु का नाम सीता रखा गया। 

सीता जी का श्री रामचंद्र जी से विवाह

जब सीता जी युवा हुईं तो मिथिला नरेश राजा जनक को अपनी पुत्री के विवाह हेतु चिंता सताने लगी। राजा जनक यह निर्णय किया कि मैं अपनी पुत्री सीता का स्वयंवर करूंगा। तभी उन्होंने सारे राज्य में घोषणा की कि जो भी पराक्रमी महादेव शंकर के दिए हुए धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी के साथ सीता जी का विवाह कर दिया जाएगा। 

ऋषि विश्वामित्र का यज्ञ तभी सफलतापूर्वक संपन्न ही हुआ था और उन्हें इस घोषणा की जानकारी थी क्योंकि राजा जनक ने ऋषि विश्वामित्र को उपस्थिति हेतु निमंत्रण भेजा था। अतः ऋषि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को भी वहां लेकर आए। उन्होंने राजा जनक से उन दोनों को धनुष दिखाने को कहा। 

राजा जनक ने धनुष दिखाने से पहले उस धनुष का पूरा वृतांत बताया। भगवान शंकर का यह धनुष इतना भारी था किसी से भी उठाने पर हिल तक भी नहीं पाता था। इस धनुष की प्रत्यंचा को चढ़ाने के लिए बहुत से पराक्रमी राजाओं को आमंत्रण भेजा लेकिन कोई भी इस धनुष को हिला पाने में सफल नहीं हुआ। 

पूरा वृतांत सुनने के पश्चात विश्वामित्र ने यह धनुष देखा और राम से उस धनुष को देखने के लिए कहा। राम ने ऋषि विश्वामित्र की आज्ञा अनुसार उस धनुष को देखा और कहा कि मैं इस धनुष को उठाने व प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयत्न करूंगा। 

ऋषि विश्वामित्र की आज्ञा से उस धनुष को बीच से पकड़कर लीलापूर्वक उठा लिया और उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी। जैसे ही उसे कान तक खींचा वैसे ही वह बीच से टूट गया, टूटते ही उसमें वज्रपात के समान बड़ी भारी आवाज हुई। 

जैसे ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई गई और धनुष टूटा तभी राजा जनक ने कहा अब मेरी पुत्री सीता दशरथनंदन राम को पति के रूप में प्राप्त करके जनकवंश की कीर्ति का विस्तार करेगी। 

तत्पश्चात राजा राजा जनक ने ऋषि विश्वामित्र से आज्ञा लेकर राजा दशरथ को आमंत्रित करने के लिए अपने मंत्रियों को भेजा। उसके पश्चात राजा दशरथ आने के बाद श्री राम का सीता जी के साथ विवाह संपन्न हुआ। साथ ही भाई लक्ष्मण का देवी उर्मिला से, भाई भरत का देवी मांडवी से व भाई शत्रुघ्न का देवी श्रुतकीर्ति से विवाह कर राजा दशरथ चारों पुत्रों सहित विदेहराज मिथिला नरेश से अनुमति लेकर अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान किया। 

सीता जी के लोक प्रसिद्ध नाम

श्रीजानकी द्वादशनामस्तोत्रम् में सीता जी के उन 12 नामों का वर्णन है जो लोक प्रसिद्ध हैं।

श्रीजानकी द्वादशनामस्तोत्रम् इस प्रकार है: 

मैथिली जानकी सीता वैदेही जनकात्मजा ।

कृपापीयूषजलधिः प्रियार्हा रामवल्लभा ॥

सुनयनासुता वीर्यशुल्काऽयोनी रसोद्भवा ।

द्वादशैतानि नामानि वाञ्छितार्थप्रदानि हि ॥

अर्थ सहित नाम

  1. मैथिली – श्रीमिथिवंशमें सर्वोत्कृष्ट रूपसे विराजनेवाली श्रीसीरध्वजराजदुलारीजी ।
  2. जानकी  – श्रीजनकजी महाराजके भावकी पूर्तिके लिये उनकी यज्ञवेदीसे प्रकट होनेवाली ।
  3. सीता –  आश्रितों के हृदयसे सम्पूर्ण दुःखोंकी मूल दुर्भावना को नष्ट करके सद्भावनाका विस्तार करनेवाली ।
  4. वैदेही – भगवान श्रीरामजीके चिन्तनकी तल्लीनतासे देहकी सुधि भूल जानेवाली शक्तियों में सर्वोत्तम ।
  5. जनकात्मजा – श्रीसीरध्वज महाराज नाम के श्रीजनकजी महाराजकेपुत्रीभावको स्वीकार करनेवाली ।
  6. कृपापीयूषजलधि – समुद्रके समान अथाह एवं अमृत के सदृश असम्भवको सम्भव कर देनेवाली कृपासे युक्त ।
  7. प्रियार्हा – जो प्यारेके योग्य और प्यारे श्रीरामभद्रजी जिनके योग्य हैं ।
  8. रामवल्ल्भा –  जो श्रीराघवेन्द्रसरकारकी परम प्यारी है 
  9. सुनयनासुता – श्रीसुनयना महारानीके वात्सल्यभाव-जनित सुखका भली भाँति विस्तार करनेवाली ।
  10. वीर्यशुल्का – शिवधनुष तोड़ने की शक्तिरूपी न्यौछावर ही वधू रूपमें जिनकी प्राप्तिका साधन है अर्थात् जो भगवान् शिवजी के धनुष तोड़ने की शक्तिरूपी न्यौछावर अर्पण कर सकेगा उसी के साथ जिनका विवाह होगा ।
  11. अयोनि – किसी कारण विशेषसे प्रकट न होकर केवल भक्तों का भाव पूर्ण करनेके लिये अपनी इच्छानुसार प्रकट होनेवाली ।
  12. रसोद्भवा – जन्मसे ही अपनी अलौकिकता व्यक्त करनेके लिये किसी प्राकृत शरीरसे प्रकट न होकर पृथ्वीसे प्रकट होनेवाली ।

वनवास की ओर प्रस्थान

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, जब राजा दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार श्री राम में वे सभी गुण पाए जो एक युवराज में होने चाहिए तब उन्होंने अपने मंत्रिमंडल से परामर्श ले कर राम के राज्याभिषेक की तैयारी के लिए आज्ञा दी। 

राजा दशरथ ने सभी अन्य राज्यों के प्रधानों को राज्याभिषेक में आमंत्रण दिया, किंतु कैकेयनरेश और राजा जनक को नहीं बुलवाया। 

राजा दशरथ ने सभी के समक्ष पुरुषशिरोमणि रामचंद्र को युवराज के पद पर नियुक्त करने की घोषणा की। यह घोषणा सुनते ही सारे अयोध्या ने खुशियों की लहर जाग उठी। 

लेकिन तभी वहां कैकेयी की एक दासी थी मंथरा जिसने कैकेयी के महल की छत से अयोध्या में होने वाली तैयारियों को देखा तो उसने राम के धाय से उसका कारण पूछा। जैसे ही उसने राम के राज्याभिषेक की खबर सुनी तो वह मन ही मन ईर्ष्या से भर गई। 

तब ही वह कैकेयी के पास गई और अत्यंत क्रोध से भरे वेग में कैकेयी के ऊपर के आने वाली विपत्ति के बारे में सोचकर उसे उत्तेजित करते हुए कहा, कल दशरथ राम को युवराज के पद पर अभिषिक्त कर देंगे, यह समाचार पाकर मैं दुख और शोक से व्याकुल हो अगाध भय के समुद्र में डूब गई हूं, चिंता की आग में जली जा रही हूं और तुम्हारे हित की बात करने यहां आई हूं। उसने कैकेयी को इन्हीं सभी बातों से उत्तेजित करने का कोशिश किया। किंतु राम के राज्याभिषेक की बात सुनकर कैकेयी खुशी से हर्षित हो उठी और उसने पुरुस्कार के रूप में मंथरा को आभूषण दिए और कहा, यह तूने मुझे बहुत अच्छा समाचार सुनाया। 

मंथरा ने कैकेयी द्वारा दिया आभूषण फेंक कैकेयी को समझाने लगी। तब कैकेयी के मंथरा को समझाते हुए कहा कि यह जो राज्य राम को मिल रहा है उसे भरत को मिलता हुआ ही समझ। 

लेकिन मंथरा ने कैकेयी को बार बार समझा कर उसे अपनी ओर कर लिया और राजा दशरथ द्वारा दिए दो वरदानों को याद दिलाते हुए इस युक्ति को सुझाकर राम को 14 वर्ष के लिए वनवास व भरत को राजगद्दी मांगने को कहा। 

राजा दशरथ जब राज्याभिषेक की तैयारी की आज्ञा देकर आए तो उन्हें पता चला कि कैकेयी कोपभवन में भूमि पर पड़ी हैं। राजा दशरथ ने उन्हें मनाते हुए कहा कि जो भी चाहती हो बताओ, मैं राम की शपथ खाकर कहता हूं कि जो तुम चाहोगी वह मैं अवश्य पूर्ण करूंगा। 

राजा दशरथ के ऐसा कहने पर अपने दो वरदानों को भरत के लिए राज्याभिषेक और राम को 14 वर्षों का वनवास मांगा। यह सुन राजा मूर्छित हो गए और उनकी चेतना लुप्त हो गई। मूर्छा से जागने पर उन्होंने कैकेयी को बहुत समझाया लेकिन कैकेयी नहीं मानी। 

अगले दिन सुबह उन्होंने राम को बुलाने की आज्ञा दी। राजा का संदेश पाते ही राम उत्सवकालिक कृत्य पूर्ण करके सुमंत्र के साथ राजा के पास पहुंचे। 

राम ने यूं शीघ्र बुलाने का कारण पूछा। राजा केवल राम को निहारते हुए राम राम ही कहते रहे लेकिन रानी कैकेयी ने बड़ी निर्लज्जता पूर्ण तरीके से अपने दो वरदान को मांगने की बात सुनाई और कहा तुम राजा की इस आज्ञा का पालन कर अपने पिता के महान सत्य की रक्षा करके इन्हें महान संकट से उबार सकते हो।

लेकिन कैकेयी के ऐसे कठोर वचनों को सुनकर राम को तनिक भी शोक ना हुआ और उन्होंने कैकेयी को वन जाने को लेकर आश्वस्त किया। 

राम तब अपनी मां कौशल्या के पास जाकर उन्हें वनवास जाने का निर्णय सुनाया और फिर सीता को भी यह बताने गए। जब वह माता सीता जी को यह बता रहे थे तभी उनके भाई लक्ष्मण ने यह खबर सुन ली और उन्होंने भी जाने की जिद की। 

राम ने माता सीता को ना ले जाने के लिए सीता को बहुत मना किया लेकिन सीता अश्रुपूर्ण हो गईं और जाने की हठ करने लगीं। तो राम को उनकी यह बात माननी पड़ी। 

तत्पश्चात राम पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण सहित राजा दशरथ से विदा मांगने के लिए आए। राम, सीता व लक्ष्मण पिता से आज्ञा लेकर, वल्कल वस्त्रों को धारण कर वनगमन के लिए तैयार हो गए। 

राम, लक्ष्मण व सीता ने हाथ जोड़कर दीन भाव से राजा  दशरथ के चरणों का स्पर्श कर उनकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की ओर माताओं से विदा लेकर, पहले से ही राजा दशरथ की आज्ञा से तैयार सुमंत्र के द्वारा चलाए जाने वाले रथ पर आरूढ़ हो वन के लिए चल दिए। 

राम के वन के लिए प्रस्थान करते ही सारी अयोध्या में भीषण कोलाहल मच गया। 

जब सुमंत्र राम, सीता व लक्ष्मण को छोड़कर आ गए और उन्होंने यह समाचार राजा दशरथ को सुनाया तो दशरथ मूर्छित हो गए। होश आने पर उनके बारे में सारा समाचार जानकर पूर्व में किए गए एक दुष्कर्म अर्थात श्रवणकुमार के वध का स्मरण करने के बाद, राम को स्मरण करते हुए राजा दशरथ ने प्राण त्याग दिए।

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