स्वामी विवेकानंद की शिष्य सिस्टर निवेदिता की जीवनी

स्वामी विवेकानंद की शिष्य सिस्टर निवेदिता की जीवनी

भारत में जिन विदेशियों पर गर्व किया जाता है, उस पंक्ति में भगिनी निवेदिता का नाम शीर्ष पर शामिल हैं। वह एक इंग्लिश - आइरिश सामाजिक कार्यकर्ता, लेखिका, शिक्षिका, स्कूल संस्थापिका और स्वामी विवेकानन्द की शिष्या थीं।


वह 1895 में स्वामी विवेकानन्द से मिलीं और उनसे इतनी प्रभावित हुई की। उनके सिद्धांतों और शिक्षाओं ने भगिनी निवेदिता पर गहरा प्रभाव डाला। 1898 में वह लंदन से भारत आ गईं। 1898 मार्च में स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा दी और उन्हें निवेदिता नाम दिया। 


आरंभिक जीवन


भगिनी निवेदिता का जन्म का नाम मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल था। 


मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल का जन्म 28 अक्टूबर 1867 को आयरलैंड के काउंटी टायरोन के  डुंगनोन शहर में हुआ था। उनकी मां का नाम मैरी इसाबेल और पिता का नाम सैमुअल रिचमंड नोबल था। उनका नाम मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल उनकी दादी के नाम पर रखा गया।


मैरी इसाबेल और सैमुअल रिचमंड नोबल के छह बच्चे हुए, जिनमें केवल बड़ी बेटी मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल, बेटी मय और बेटा रिचमंड ही जीवित बचे।


उनका परिवार स्कॉटिश मूल से था, जो लगभग पांच शताब्दियों तक आयरलैंड में बसे रहे। उनके पिता पादरी थे। उनके पिता ने उन्हें बचपन से ही सिखाया की मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। 


जब मार्गरेट एक वर्ष की थी तब सैमुअल रिचमंड नोबल मैनचेस्टर, इंग्लैंड चले गए। वहां उन्होंने वेस्लेयन चर्च के धार्मिक शिष्य के रूप में प्रवेश लिया। मार्गरेट उस समय अपने नाना हैमिल्टन के साथ आयरलैंड में ही रहीं।


उनके माता - पिता डिवोनशायर के ग्रेट टॉरिंगटन में मार्गरेट को जब वह चार वर्ष की थी अपने साथ ही रहने के लिए ले आए। 


वर्ष 1877 में उनके पिता की मृत्यु हो गई, जब वह केवल दस साल की ही थी। मार्गरेट अपनी मां बहन और भाई के साथ आयरलैंड में अपने नाना हैमिल्टन के पास वापस लौट आईं।


हैमिल्टन आयरिश राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रखर नेता थे। मार्गरेट ने अपने पिता से धार्मिक ज्ञान सीखा तो दूसरी ओर अपने नाना से देश की स्वतंत्रता और प्रेम की भावना को अपने जीवन में ग्रहण किया।


उनकी मां मैरी ने लंदन के किंडरगार्डन में शिक्षिका पद पर जुड़ी। फिर मैरी ने बेलफास्ट के पास एक गेस्ट हाउस को चलने में अपनी मां की मदद की।


मार्गरेट ने शिक्षा कांग्रेगेशनलिस्ट चर्च के एक सदस्य द्वारा संचालित हैलिफैक्स कॉलेज से प्राप्त की। इस कॉलेज की प्रधानाध्यापिका से उन्हें व्यक्तिगत त्याग की महत्वता का बोध मिला।


मार्गरेट ने भौतिकी, कला, संगीत और साहित्य जैसे विषयों का अध्ययन किया।


धार्मिक पृष्टभूमि से संबंध रखने वाली मार्गरेट ने छोटी उम्र से ही ईसाई धार्मिक सिद्धांत सीख लिए थे। बचपन से वह सभी धार्मिक शिक्षाओं का आदर किया और उन्हें समझा। जैसे जैसे वह बड़ी हुई उनका ईसाई सिद्धांतों में संदेह उत्पन्न हो गया। उन्होंने पाया की शिक्षाएं सत्य के साथ असंगत थी। इस कारण वह मन की उधेड़ बुन से विचलित हुई और दुखी हो गईं। उन्होंने स्वयं को चर्च सेवा में समर्पित करने का प्रयत्न किया। लेकिन उनकी सत्य की खोज जारी रही। सत्य की अपनी खोज में उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन शुरू किया।


भारत आने से पहले 


वर्ष 1884 में 16 साल की उम्र में मार्गरेट, केसविक के एक स्कूल में अध्यापिका के तौर पर शामिल हुईं। वर्ष 1886 में वह अनाथालय में बच्चों को शिक्षा देने रग्बी गईं।


एक साल बाद उन्होंने नॉर्थ वेल्स के व्रेक्सहैम के कोयला खनन क्षेत्र में कार्य किया। जहां उनकी गरीबों के प्रति सेवा और प्रेम भावना को पुनर्जीवित पाया, जो उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली थीं।


व्रेक्सहैम में मार्गरेट की शादी एक वेल्श युवक से होने वाली थी। लेकिन सगाई के कुछ दिनों बाद ही उस युवक की मृत्यु हो गई।


वर्ष 1889 में वह चेस्टर चली गईं। उस समय तक उनकी बहन मय और भाई रिचमंड लिवरपूल में ही रह रहे थे। कुछ दिनों बाद उनकी मां मैरी भी उनके साथ ही रहने लगीं। मार्गरेट अपने परिवार से मिलकर खुश थीं और कभी कभी उनसे मिलने लिवरपूल जाती थीं।


मार्गरेट ने शिक्षा के क्षेत्र में अपनी पढ़ाई फिर से शुरू की। वह स्विस शिक्षा सुधारक जोहान हेनरिक पेस्टलोजी और फ्रेडरिक फ्रोबेल के विचारों से परिचित हुईं।


पेस्टलोजी और फ्रोबेल दोनों ने पूर्व स्कूली शिक्षा के महत्व पर जोर दिया। उनका मत था कि बच्चों की शिक्षा की शुरुआत खेल-कूद, व्यायाम, देखभाल, निर्माण आदि सामान्य योग्यताओं को विकसित करने से होनी चाहिए।


इंग्लैंड के बहुत से शिक्षक इस नई विचारधारा से प्रभावित हुए और उन्होंने इस दिशा अपनाने का प्रयास किया। 


मार्गरेट ने भी इस ओर अपना योगदान दिया। संडे क्लब और लिवरपूल साइंस क्लब की वह लेखिका और मजबूत वक्ता के रूप में निखर कर आईं।


वर्ष 1891 में मार्गरेट विंबलडन में बस गईं। लंदन में उन्होंने एक नया स्कूल शुरू करने के लिए श्रीमती डी लीउव की मदद की। एक साल बाद, 1892 में उन्होंने किंग्सलेगेट में अपना स्वतंत्र स्कूल शुरू किया। 


उनके स्कूल में किसी भी प्रकार से कोई प्रतिबंधात्मक निर्धारित तरीका या औपचारिक शिक्षा नहीं थी। वहां बच्चों को खेल के माध्यम से शिक्षा दी जाती। उन्होंने अपने स्कूल के प्रसिद्ध कला शिक्षक और कला शिक्षा सुधारक ऐबेनेजर कुक से कला का आलोचक बनाना सीखा।


उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में तो प्रसिद्धि मिली ही साथ में वह पत्र पत्रिकाओं में सफल लेखिका और लोकप्रिय वक्ता के रूप में निखर के आईं। जल्द ही उन्होंने लंदन के बुद्धिजीवियों के बीच अपनी पहचान स्थापित की। वह लेडी रिपन और लेडी इसाबेल मार्गेसन, से भी परिचित हुई।


वर्ष 1892 में आयरलैंड के लिए होम रूल बिल जब संसद के समक्ष था, तब उन्होंने निडर होकर उसके बारे में बात की।


उन्होंने सेसम क्लब नामक साहित्यिक मण्डली की संस्थापना की। डबल्यू बी येस्ट्स, बर्नार्ड शॉ और थॉमस हक्सले जैसे प्रसिद्ध लेखक सेसम क्लब के नियमित वक्ता थे। जहां साहित्य, नैतिकता, राजनीति और इसी तरह के विषयों पर चर्चाएं हुआ करती थी।


26 अक्टूबर 1911 के टाइम्स ऑफ लंदन ने मार्गरेट के बारे में लिखा कि वह एक असाधारण प्रतिभा वाली शिक्षिका, जो शिक्षाविदों के समूह में से एक थीं और जिन्होंने नब्बे के दशक की शुरुआत में सेसम क्लब की स्थापना की।


स्वामी विवेकानंद से मुलाकात 


नवंबर 1892 में मार्गरेट पहली बार स्वामी विवेकानंद जी से मिलीं। उस दौरान स्वामी विवेकानंद लंदन घूमने गए थे और लगभग तीन महीने तक वही रहे।


एक शीत दोपहर में स्वामी विवेकानंद लंदन के एक कुलीन परिवार के ड्राइंग रूम में वेदांत दर्शन की व्याख्या कर रहे थे। मार्गरेट की मित्र लेडी इसाबेल मार्गेसन ने ऐबेनेजर कुक को, मार्गरेट के रस्किन स्कूल में शिक्षक थे, इस बैठक में आमंत्रित किया। मार्गरेट भी उनके साथ बड़ी उत्सुकता और रुचि के साथ उस बैठक में सम्मिलित हुई।


मार्गरेट ने उस मुलाकात के अवसर के अपने अनुभव का वर्णन किया। “एक राजसी व्यक्ति, भगवा वस्त्र और लाल कमरबंद पहने, फर्श पर पालती मारकर बैठा था।” 

स्वामी विवेकानंद ने वहां अपनी गहरी सुरीली आवाज में संस्कृत श्लोकों का पाठ किया।


उन्होंने स्वामी विवेकानंद के कई अन्य व्याख्यानों में भाग लिया। मार्गरेट ने उनसे बहुत से प्रश्न किए और उनके उत्तरों से संदेह के बादल छट गए। जिससे स्वामी विवेकानंद के प्रति उनके मन में विश्वास और श्रद्धा स्थापित हुई।


मार्गरेट ने गौतम बुद्ध की शिक्षाओं में रूचि ली और स्वामी विवेकानंद के साथ उनकी चर्चाओं में भाग लिया।


स्वामी विवेकानंद के वेदान्तिक सिद्धांतों और शिक्षाओं ने मार्गरेट पर गहरा प्रभाव डाला, जिस कारण उनके व्यक्तित्व में स्पष्ट परिवर्तन हुआ।


स्वामी विवेकानंद जी की राय में भारतीय समाज में उपस्थित बुराइयों के विनाश के लिए शिक्षा एकमात्र समाधान है। भारतीय महिलाओं के लिए विशेषकर शिक्षा महत्पूर्ण है।


स्वामी विवेकानंद द्वारा मार्गरेट को भारतीय महिलाओं को शिक्षित करने की भूमिका हेतु चुना गया था।


मार्गरेट को लिखे पत्र में स्वामी विवेकानंद ने लिखा था, “मैं आपको स्पष्ट रूप से बता दूं कि अब मुझे विश्वास हो गया है, भारत के लिए काम करने में आपका एक महान भविष्य है। विशेषकर भारतीय महिलाओं के लिए काम करने के लिए एक पुरुष की नहीं बल्कि एक महिला की आवश्यकता होगी।”


भारत आगमन 


स्वामी विवेकानंद के भारत बुलावे के उत्तर स्वरूप मार्गरेट अपनी मां सहित अपने परिवार और दोस्तों को छोड़ भारत के लिए अपनी यात्रा पर निकली।


वह 28 जनवरी 1898 को मोम्बासा नामक जहाज से कलकत्ता पहुंची। 22 फरवरी को उन्होंने दक्षिणेश्वर मंदिर का दौरा किया, जहां श्री रामकृष्ण परमहंस (स्वामी विवेकानंद जी के गुरु) ने साधना की थी।


स्वामी विवेकानंद ने सबसे पहले मार्गरेट भारत और भारतीय लोगों के बारे में बताया। उनके हृदय में लोगों के प्रति स्नेह को विकसित किया तथा उनके चरित्र का विस्तार किया। उन्होंने भारत इतिहास, दर्शन, साहित्य और आम जनता के जीवन, सामाजिक परम्पराओं तथा प्राचीन और आधुनिक हस्तियों के विषय में मार्गरेट को अवगत करवाया।


कुछ सप्ताह बीत जाने पर अमेरिका से स्वामी विवेकानंद की दो शिष्याएं, प्रसिद्ध नॉर्वेजियन वायलिन वादक और संगीतकार ओले बुल की पत्नी सारा सी. बुल और जोसेफिन मैकलियोड भारत आई। जो मार्गरेट की मित्र बन गईं।


11 मार्च 1898 को स्वामी विवेकानंद ने मार्गरेट को कलकत्ता के लोगों से परिचय करवाया। स्टार थिएटर में उन्होंने एक सार्वजनिक बैठक का आयोजन किया और लोगों को संबोधित कर कहा - “इंग्लैंड ने मिस मार्गरेट नोबल के रूप में हमे उपहार भेजा है।”


इस मुलाकात में मार्गरेट ने भारत और यहां के लोगों की सेवा करने की अपनी इच्छा को व्यक्त किया। 


17 मार्च 1898 को मार्गरेट पहली बार श्री सारदा देवी (स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस की पत्नी) से मिलीं। जिन्होंने प्रेम से मार्गरेट को खूकी यानी छोटी लड़की कह कर स्वागत किया।


मार्गरेट से भगिनी निवेदिता के रूप में सफर 


25 मार्च 1898 को, नीलांबर मुखर्जी गार्डन में स्वामी विवेकानंद ने मार्गरेट को औपचारिक रूप से ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा दी और उस दिन से उनका नाम मार्गरेट से निवेदिता हुआ। और वह भगिनी निवेदिता के रूप में प्रचलित हुई।


स्वामी विवेकानंद ने उनसे कहा “जाओ उनका अनुसरण करो जिन्होंने बुद्ध के दर्शन प्राप्त करने से पहले पांच सौ बार जन्म लिया और दूसरों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।”


भगिनी निवेदिता ने संन्यास का अंतिम व्रत लेने की इच्छा भी स्वामी विवेकानंद के समक्ष रखी पर उन्होंने मना कर दिया।


स्वामी विवेकानंद ने भगिनी निवेदिता को हिंदू ब्रह्मचारिणी के रूप में उन्हें हिंदू महिलाओं के बीच जाकर उनकी जीवनशैली का निरीक्षण करने की सलाह दी।


भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद, सारा सी. बुल और जोसेफिन मैकलियोड के साथ कश्मीर सहित भारत के कई स्थानों की यात्रा की। इससे उन्हें भारतीय लोगो, संस्कृति और इतिहास को समझने में काफी मदद मिली। 


11 मई 1898 को वह स्वामी विवेकानंद, सारा सी. बुल, जोसेफिन मैकलियोड और स्वामी तुरियानंद के साथ हिमालय की यात्रा पर गईं। नैनीताल से वे अल्मोड़ा गए। अल्मोड़ा में भगिनी निवेदिता ने प्रथम बार ध्यान करना सीखा। 


उन्होंने स्वामी स्वरूपानंद से बंगाली भाषा भी सीखनी आरंभ की। वे अल्मोड़ा से कश्मीर घाटी गए।


फिर भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के साथ अमरनाथ की यात्रा की। 


13 नवंबर 1898 को भगिनी निवेदिता ने भारत में एक स्कूल को स्थापित किया, जिस अवसर पर श्री सारदा देवी गईं और उसका उद्घाटन किया। सबसे पहले श्री सारदा देवी ने श्री रामकृष्ण परमहंस की पूजा की और अपना आशीर्वाद देते हुए कहा, “मैं प्रार्थना करती हूं स्कूल और स्कूल में आने वाली लड़कियों पर दिव्य मां का आशीर्वाद बना रहे।”


श्री सारदा देवी की पहली तस्वीर भगिनी निवेदिता के घर पर ली गई थी। भगिनी निवेदिता ने अपनी मित्र नेल हैमंड को श्री सारदा देवी के साथ अपनी पहली कुछ मुलाकातों के बाद उनके प्रति अपने भाव व्यक्त करते हुए लिखा, वह वास्तव में सबसे सरल और विनम्रता की ओट में सबसे मजबूत और महान महिलाओं में से एक हैं।”


भगिनी निवेदिता ने घर घर जा कर लड़कियों को शिक्षित किया। जिनमें से कई 20वीं सदी के शुरुआती भारत की सामाजिक आर्थिक स्थिति के कारण दयनीय दशा में थी। कई बार उन्हें परिवार के पुरुषों से इंकार का सामना करना पड़ता था।


भगिनी निवेदिता के स्कूल में विधवाओं और वयस्क महिलाओं को भी शिक्षा दी जाती। वह नियमित पाठयक्रम के साथ सिलाई और स्वच्छता के प्राथमिक नियमों आदि की शिक्षा देती थीं।


वर्ष 1899 में भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के साथ जागरूकता बढ़ाने और अपने उद्देश्य के लिए सहायता प्राप्त करने के लिए संयुक्त अमेरिका की यात्रा की।


स्कूल के लिए धन एकत्रित करना बिल्कुल भी आसान नहीं था। भगिनी निवेदिता अपने लेखन और व्याख्यान देकर रुपए जुटाती।


वह परोपकारी गतिविधियों में भी भाग लेती थीं। 1899 में कलकत्ता में प्लेग महामारी फैल गई थी, तब भगिनी निवेदिता मरीजों की देखभाल करने में अपना पूरा समय दिया। उन्होंने आस पास के क्षेत्र का कचरा साफ किया, साथ ही युवाओं को स्वैच्छिक सेवा प्रदान करने के लिए प्रेरित किया।


भगिनी निवेदिता ने अंग्रेजी अखबारों में मदद की अपील की और प्लेग राहत गतिविधियों के लिए वित्तीय सहायता का अनुरोध किया। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से घूम घूम कर निवारक उपायों के लिखित निर्देश लोगों को दिए।


उनकी कई बंगाली बुद्धिजीवियों और कलाकारों के साथ मित्रता थी। जिनमें रविंद्रनाथ टैगोर, जगदीश चन्द्र बोस, अबला बोस और अबनिंद्रनाथ टैगोर शामिल थे। 


भगिनी निवेदिता भारतीय इतिहास संस्कृति और विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए हमेशा तैयार रहीं। उन्होंने भारतीय वैज्ञानिक और दार्शनिक डॉ जगदीश चन्द्र बोस मौलिक वैज्ञानिक अनुसंधान करने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया। साथ ही औपनिवेशिक शासन के उदासीन रवैया का सामना कर उन्हे सही मान्यता दिलाने में आर्थिक सहायता के लिए भी मदद की।


भगिनी निवेदिता ने भारतीय स्वतंत्रता का मुद्दा भी उठाया। उनकी फरवरी 1902 में कलकत्ता में महात्मा गांधी से भी मुलाकात हुई।


स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के बाद 


भगिनी निवेदिता ने आखिरी बार स्वामी विवेकानंद को 2 जुलाई 1902 को बेलूर मठ में देखा था। उस दिन स्वामी विवेकानंद ने एकादशी का व्रत रखा था। हालांकि, जब उनके शिष्यों ने भोजन किया तो उन्होंने स्वयं खुशी से उन्हें भोजन परोसा।


स्वामी विवेकानंद ने 4 जुलाई 1902 को रात्रि 9:10 बजे अपना शरीर त्याग दिया था।


भगिनी निवेदिता अक्सर स्वामी विवेकानंद को द किंग कहती थीं और स्वयं को उनकी आध्यात्मिक पुत्री मानती थीं।


स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के बाद अपनी राजनीतिक गतिविधियों के कारण नवगठित रामकृष्ण मिशन की असुविधाओं से भली भांति परिचित होने के कारण, भगिनी निवेदिता ने सार्वजनिक रूप से स्वयं को अलग कर लिया। हालांकि अपने अंतिम दिनों तक वह स्वामी ब्रह्मानंद, बाबूराव महाराज और स्वामी सारदानंद जैसे स्वामी विवेकानंद के भाई शिष्यों के साथ उनके अच्छे संबंध बने रहे।


भगिनी निवेदिता ने शुरुआत में जापान के ओकाकुरा और टैगोर परिवार से जुड़ी सरला घोसाल के साथ काम किया। उन्होंने अपने व्याख्यानों के माध्यम से कई युवाओं को भारतीय स्वतन्त्रता का मुद्दा उठाने के लिए प्रेरित किया।


उन्होंने 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में अपने भाषण के बाद लॉर्ड कर्जन पर भी अपने शब्दों का हमला बोला। जहां उन्होंने उल्लेख किया था कि पूर्व की तुलना में पश्चिम के नैतिक संहिताओं में सत्य को ऊंचा स्थान दिया गया है।


वर्ष 1905 में लॉर्ड कर्जन और औपनिवेशिक सरकार ने बंगाल के विभाजन की शुरुआत की जो भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में एक प्रमुख मोड़ साबित हुआ।


भगिनी निवेदिता ने आंदोलन को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने वित्तीय सहायता और सरकारी ऐजेंसियों से जानकारी हासिल कर स्वतंत्रता सेनानियों को सचेत करने के लिए अपने संपर्कों का लाभ उठाया।


भगिनी निवेदिता ने अबनिंद्रनाथ टैगोर, आनंद कुमारस्वामी और ईबी हैवेल जैसे भारतीय कलाकारों से मुलाकात की और उन्हें भारतीय कला विद्यालय स्थापित करने के लिए प्रेरित किया।


वह 1906 में प्रसिद्ध तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती से मिली जिनपर भगिनी निवेदिता के विचारों का गहरा प्रभाव हुआ। भगिनी निवेदिता ने सुब्रमण्यम भारती को भारतीय महिलाओं की स्वतन्त्रता के लिए काम करने हेतु प्रेरित किया।


भगिनी निवेदिता ने लाल पृष्टभूमि पर प्रतीक चिन्ह के रूप में वज्र के साथ भारत का राष्ट्रिय ध्वज भी डिजाइन किया था।


उन्होंने अपनी दैनिक गतिविधियों के माध्यम से अपने छात्रों के मन में राष्ट्रियवाद की भावना को जागृत करने का प्रयास किया। उन्होंने अपने स्कूल में वंदे मातरम् गीत को प्रार्थना के रूप में गाने की शुरुआत की।


अरबिंदो घोष जो प्रारंभिक राष्ट्रवादी आंदोलन में प्रमुख योगदानकर्ताओं में से एक थें, भगिनी निवेदिता ने अरबिंदो घोष के राष्ट्रवादी समाचार पत्र कर्म योगिन का संपादन किया। 


पुस्तकें


भगिनी निवेदिता ने अपने कई लेखन द्वारा भारतीय संस्कृति और धार्मिक कथाओं की झलक को दर्शाया है।


द वेब ऑफ इंडियन लाइफ पुस्तक में उन्होंने भारतीय संस्कृति और रीति रिवाजों के बारे में पश्चिम में कई मिथकों को सुधारने का प्रयास किया।


नोट्स ऑफ सम वंडरिंग्स विद द स्वामी विवेकानंद पुस्तक में उन्होंने स्वामी विवेकानंद के साथ नैनीताल, अल्मोड़ा और भारत भ्रमण की यात्रा के विषय में उल्लेख किया है।


द मास्टर एस आई शाह हिम नामक किताब उन्होंने स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व पर लिखी है।


भगिनी निवेदिता द्वारा लिखित क्रेडल टेल्स ऑफ हिंदूइस्म पुस्तक पुराणों, रामायण और महाभारत आधारित ग्रंथो की कहानियों को दर्शाती है।


काली द मदर, स्टडीज फ्रॉम एन इस्टर्न होम, एन इंडियन स्टडी ऑफ लव एंड डेथ, मिथ्स ऑफ द हिंदू एंड बुद्धिस्ट, फुटफॉल्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री, रिलीजन एंड धर्म  जैसे उनके लेख प्रकाशित हुए है।


निधन


43 वर्ष की आयु में 13 अक्टूबर 1911 को भगिनी निवेदिता ने रॉय विला, दार्जलिंग में अंतिम सांसे ली। 


आज विक्टोरिया फाल्स, दार्जलिंग के रास्ते में रेलवे स्टेशन के नीचे भगिनी निवेदिता का का स्मारक है। उनके समाधिलेख में अंकित है कि, “यह भगिनी निवेदिता हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत पर न्यौछावर किया।”


वर्ष 1968में भारत सरकार ने इनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया।


वर्ष 2010 में कोलकाता के साल्ट लेक सिटी में पश्चिमी बंगाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के कार्यालय का नाम भगिनी निवेदिता के नाम पर रखा गया।


दक्षिणेश्वर, कोलकाता के पास निवेदिता पुल का नाम उनके सम्मान में रखा गया। 


वर्ष 2015 में हेस्टिंग्स हाउस अलीपुर, कोलकाता में एक नए सरकारी डिग्री कॉलेज का नाम भगिनी निवेदिता के नाम पर रखा गया।


वर्ष 2018 में कोलकाता में बारानागोर रामकृष्ण आश्रम हाई स्कूल के उच्चतर माध्यमिक अनुभाग स्कूल भवन का नाम भगिनी निवेदिता के नाम पर निवेदिता भवन रखा गया।

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