भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और भारत छोड़ो आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाली महिला जिन्होंने महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू समेत कांग्रेस के सभी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में भाग ले अगले ही दिन गोवलिया टैंक मैदान (आजाद मैदान) में कांग्रेस का झंडा फहरा दिया।
अरुणा आसफ अली शिक्षिका, राजनीतिक कार्यकर्ता और प्रकाशक थीं साथ ही भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलनों में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। वह कई बार जेल में भी गईं।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तारी का वारंट जारी होने पर उन्होंने चार सालों तक भूमिगत रहकर आंदोलन जारी रखा। जब ब्रिटिश पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाई तो उनकी संपत्ति जब्त कर बेच दी गई।
उन्होंने राम मनोहर लोहिया के साथ 'इंकलाब’ पत्रिका का संपादन किया और ऊषा मेहता के साथ कांग्रेस के एक गुप्त रेडियो स्टेशन से प्रसारण किया।
आजादी के बाद वह राजनीति में सक्रिय रहीं। 1958 में अरुणा आसफ अली दिल्ली की पहली मेयर बनीं।
आरंभिक जीवन
अरुणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को ब्रिटिश भारत में पंजाब के कालका (अब हरियाणा) में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका नाम अरुणा गांगुली था।
उनके पिता उपेंद्रनाथ गांगुली पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के बारिसल जिले से थे, जो संयुक्त प्रांत में आ कर बस गए। उनके पिता रेस्टोरेंट के मालिक थे। उनकी मां अंबालिका देवी एक प्रसिद्ध ब्रह्मो नेता त्रैलोक्यनाथ सान्याल जिन्होंने कई ब्रह्म भजन लिखे
की बेटी थीं।
उनके पिता उपेंद्रनाथ गांगुली के छोटे भाई धीरेंद्रनाथ गांगुली (DG) शुरुआती फिल्म निर्देशकों में से एक थे। उनके एक भाई नागेंद्रनाथ एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे, जिनकी पत्नी नॉबेल पुरस्कार विजेता रविंद्रनाथ टैगोर की एकमात्र जीवित बेटी मीरा देवी थीं।
अरुणा जी की बहन पूर्णिमा बनर्जी भारत की संविधान सभा की सदस्या थीं।
शिक्षा और विवाह
अरुणा जी की शिक्षा लाहौर के सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट से हुई। बाद में ऑल सेंट्स कॉलेज, नैनीताल से शिक्षा प्राप्त की।
स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद उन्होंने कलकत्ता के गोखले मेमोरियल स्कूल में शिक्षिका के रूप में कार्य किया।
इलाहाबाद में उनकी मुलाकात कांग्रेस पार्टी के नेता आसफ अली से हुई। आसफ अली मुस्लिम थे और अरुणा जी से 21 साल बड़े थे। धर्म और उम्र के आधार पर परिवार उनकी शादी के लिए बिल्कुल भी राजी न था।
नवंबर 1928 में अरुणा जी और आसफ अली ने शादी की।
उनकी शादी के समय उनके पिता नहीं थे और उनके चाचा नागेंद्रनाथ गांगुली उनके अभिभावक थे। इस शादी के बाद उनके चाचा ने सभी रिश्तेदारों और दोस्तों के सामने उन्हें मरा हुआ मान लिया।
शादी के बाद जब वह दिल्ली रहने आईं, उन्हें वहां भारतीय मुस्लिम जीवनशैली और परंपराओं में ढलने में बहुत कठिनाई अनुभव हुई। उन्हें रसोईघर में बंधी घरेलू जिदंगी और महिलाओं के एकांतवास ने झंझोड दिया था।
आधुनिक पश्चिमी सुविधाओं के साथ पली बढ़ी अरुणा जी के लिए आसफ अली का पैतृक घर प्राचीन काल जैसा था। शादी के बाद शुरुआती दिनों में वह पर्दे में रहती थीं।
कुछ समय बाद वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गईं। नमक सत्याग्रह के दौरान उन्होंने सार्वजनिक जुलूसों में भाग लिया।
उनके पति आसिफ अली भारतीय स्वंतत्रता कार्यकर्ता और प्रसिद्ध वकील थे। वह भगत सिंह के वकील थे। वह संयुक्त राज्य अमेरिका में पहले भारतीय राजदूत थे। उन्होंने बाद में ओडिशा के राज्यपाल के रूप में कार्य किया। और फिर स्विट्जरलैंड में भारतीय राजदूत नियुक्त किए गए।
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान
अरुणा जी ने भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभाई। नमक सत्याग्रह के समय बढ़ चढ़कर भाग लेने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
1931 में गांधी-इरविन समझौते के बाद सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करना तय हुआ था, लेकिन अरुणा जी को रिहा नहीं किया गया था।
अन्य सह महिलाओं ने भी परिसर छोड़ने से मना कर दिया जब तक अरुणा जी को नहीं छोड़ा जाएगा। गांधी जी के हस्तक्षेप के बाद ही उन्होंने हार मानी। और एक सार्वजनिक आंदोलन ने उनकी रिहाई को सुनिश्चित कर दिया।
वर्ष 1932 में उन्हें तिहाड़ जेल में बंदी बना दिया गया। जहां राजनितिक कैदियों के साथ भद्दे व्यवहार बेकार खाने के विरोध में भूख हड़ताल कर दी। उनके प्रयासों से जेल के कैदियों की स्थिति में सुधार हुआ। लेकिन उन्हें अंबाला ले जाया गया और वहां उन्हें एकांतवास में रखा गया।
अपनी रिहाई के बाद वह राजनितिक रूप से बहुत सक्रिय नहीं थीं।
8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने बंबई (मुंबई) अधिवेशन में भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया।
ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के प्रमुख नेताओं और कार्य समिति के सभी सदस्यों को गिरफ्तार करके अपना जवाब दिया और इस तरह आंदोलन को रोकने का तरीका अपनाया।
9 अगस्त को अरुणा जी ने आंदोलन सत्र की अध्यक्षता की और गोवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस का झंडा फहरा दिया। सभा के दौरान पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी लेकिन निडर अरुणा आसिफ अली नहीं डरी।
खतरे के सामने उनकी बहादुरी के लिए अरुणा जी को 1942 के आंदोलन की नायिका नाम दिया गया और बाद के वर्षों में उन्हें स्वंतत्रता आंदोलन की ग्रैंड ओल्ड लेडी कहा गया।
भारतीय युवाओं में स्वतंत्रता की जिज्ञासा जागृति के लिए वह स्वाभाविक विरोध और प्रदर्शन करती रहीं।
ब्रिटिश सरकार द्वारा उनके नाम पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। गिरफ्तारी से बचने के लिए वह भूमिगत हो गईं और भूमिगत रहकर आंदोलन शुरू कर दिया।
ब्रिटिश पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाई तो उन्होंने अरुणा जी की संपत्ति जब्त कर ली और उसे बेच दिया। इस बीच उन्होंने राम मनोहर लोहिया के साथ कांग्रेस पार्टी की मासिक पत्रिका इंकलाब का संपादन किया।
1944 के मुद्दों के बीच उन्होंने युवाओं को हिंसा और अहिंसा की बेकार चर्चाओं को भूलकर देश की स्वतंत्रता क्रांति में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया।
ब्रिटिश सरकार ने अरुणा जी को पकड़ने के लिए उनपर 5,000 रुपए का इनाम घोषित किया। इस बीच वह बीमार हो गईं और करोल बाग में डॉ जोशी अस्पताल के छिपी रहीं।
महात्मा गांधी ने उस समय उन्हें पत्र लिखकर आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, जिससे इनाम की राशि का उपयोग हरिजन हित के लिए किया जा सके।
लेकिन इस बात को उन्होंने नहीं स्वीकारा और 1946 में वह बाहर आईं जब उनके नाम का वारंट वापिस ले लिया गया।
उन्होंने महात्मा गांधी के पत्र को बडे़ संभाल कर रखा और उसे अपने ड्राइंग रूम में लगाया।
अरुणा जी और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं को गांधी जी के राजनितिक बच्चे कहा गया। साथ ही कार्ल मार्क्स के नए छात्र के रूप में देखा गया।
जलसेना विद्रोह
नौसेना में भारतीयों की स्थितियों और उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहार से आतंकित हो 18 फरवरी 1946 को लगभग 1,100 भारतीय नाविकों और रॉयल इंडिया नेवी ने भूखहड़ताल की घोषणा की।
HMIS तलवार के कमांडर एफएम किंग कथित तौर पर नौसेनिकों को गाली देते हुए संबोधित किया, जिसने इस स्तिथि को आक्रामक रूप दे दिया।
धीरे धीरे इस हड़ताल में 20,000 नाविक शामिल हो गए। कराची, मद्रास, कलकत्ता, मड़पम, विशाखापत्तनम और अंडमान द्वीपसमूह बंदरगाहों तक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे कास्ट गार्ड के बीच हड़ताल की आग फैल गई।
नाविकों की मांगों में अच्छे खाने और गोरे सैनिकों के समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और राजनितिक बंदियों की रिहाई और इंडोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाने की मांग भी शामिल हो गई।
नौसेनिकों के समर्थन में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूरों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने हिंसात्मक रूप से हमला किया, जिसमें 300 लोग मारे गाए गए और 1700 घायल हुए। इसी दिन कराची में भारी लड़ाई के बाद हिन्दुस्तान जहाज से आत्मसमर्पण करवाया गया।
आमतौर पर इतिहासकारों का मानना है कि नौसेना विद्रोहियों को न तो कॉग्रेस और न ही मुस्लिम लीग का समर्थन मिला।
किन्तु दुर्भाग्य से इस विद्रोह को भारतीय इतिहास में महत्व नहीं मिला।
उल्लेखनीय है कि 22 फरवरी को कम्युनिस्ट पार्टी ने जब हड़ताल का आह्नान किया तब कांग्रेस समाजवादी अच्युत पटवर्धन और अरुणा आसफ अली ने तो समर्थन किया, लेकिन कांग्रेस के अन्य नेताओं ने विद्रोह की भावना को दबाने वाले वक्तव्य दिए थे।
नौसैनिक समर्थन के कारण अरुणा जी को महात्मा गांधी की आलोचना का भी सामना करना पड़ा।
स्वतंत्रता के बाद
अरुणा आसिफ अली कांग्रेस समाजवादी पार्टी की सदस्य थीं। समाजवाद पर कांग्रेस पार्टी की प्रगति से निराश हो, वह 1948 में बनी एक नई पार्टी ' सोशलिस्ट पार्टी' में शामिल हो गईं।
लेकिन उन्होंने एडाटाटा नारायणन के साथ उस पार्टी को छोड़ दिया। फिर वे दोनों रजनी पाल्मे दत्त के साथ मॉस्को गए।
1950 के दशक की शुरुआत में वे दोनों भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं।
2 अप्रैल 1953 को स्विट्जरलैंड में भारत के राजदूत के रूप में कार्य करते हुए अरुणा जी के पति आसिफ अली की बर्न में मृत्यु हो गई। 1989 में इंडिया पोस्ट ने आसिफ अली के सम्मान में एक डाक टिकट जारी की।
उनकी मृत्यु के बाद अरुणा जी शोकग्रस्त हो गईं। वर्ष 1954 में, उन्होंने नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमन, सीपीआई की महिला शाखा के गठन में सहायता की। लेकिन निकिता ख्रुश्चेव द्वारा स्टालिन को अस्वीकार करने के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ दी।
दिल्ली की पहली मेयर
वर्ष 1958 में अरुणा आसिफ अली दिल्ली की पहली मेयर चुनी गईं। वह दिल्ली में सामाजिक कल्याण और विकास के लिए कृष्ण मेनन, विमला कपूर, गुरु राधा किशन, प्रेमसागर गुप्ता, रजनी पाल्मे, सरला शर्मा और सुभद्रा जोशी जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़ी रहीं।
1958 में ही उन्होंने और एडाटाटा नारायणन ने लिंक पब्लिशिक हाउस शुरू किया। उसी वर्ष एक दैनिक समाचार पत्र पैट्रियट और एक साप्ताहिक लिंक प्रकाशित किया।
जवाहरलाल नेहरू, कृष्ण मेनन और बीजू पटनायक जैसे नेताओं के संरक्षण के कारण प्रकाशन प्रतिष्ठित हो गए।
बाद में अरुणा जी आंतरिक राजनीति के कारण प्रकाशन से बाहर हो गईं। आपातकाल में आपत्तियों के बाद भी वह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नजदीक थीं।
29 जुलाई 1996 को 87 साल की उम्र में उनकी नई दिल्ली में मृत्यु हो गई।
पुरस्कार और सम्मान
- अरुणा आसिफ अली को 1964 में अंतराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- उन्हें 1991 में अंतराष्ट्रीय समझ के लिए जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- उन्हें 1992 में भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
- उन्हें मरणोपरांत 1997 में सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया।
- 1998 में उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया।
- नई दिल्ली में अरुणा आसिफ अली मार्ग का नाम उनके सम्मान में रखा गया।
- ऑल इंडिया माइनोरिटीज फ्रंट प्रतिवर्ष डॉ अरुणा आसिफ अली सद्भावना पुरस्कार वितरित करता है।
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