भारतीय समाज सुधारक पंडिता रमाबाई की जीवनी

भारतीय समाज सुधारक पंडिता रमाबाई की जीवनी

एक भारतीय समाज सुधारक और पहली महिला जिन्हें पंडिता और सरस्वती की उपाधि प्राप्त हुई। 1889 के कांग्रेस सत्र की दस महिला प्रतिनिधियों में एक नाम बनी।

1880 के दशक की शुरुआत में इंग्लैंड में रहते हुए उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था। फिर उन्होंने भारतीय अनपढ़ महिलाओं को शिक्षित बनाने के लिए धन जुटाने के लिए अमेरिका का दौरा किया। एकत्रित धनराशि से उन्होंने बाल विधवाओं के लिए शारदा सदन की स्थापना की।

1890 के दशक के अंत में उन्होंने पुणे शहर से पूर्व दिशा मे 40 मील दूर केडगांव में ईसाई धर्मार्थ, मुक्ति मिशन नामक संस्था स्थापित की। इसे बाद में पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन नाम दिया गया।

पंडिता रमाबाई सात भाषाओं की ज्ञाता थीं। उन्होंने बाइबल को उसकी मूल रूप से हिब्रू और ग्रीक भाषा से अपनी मातृभाषा मराठी में अनुवाद किया।

पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन आज भी सक्रिय है, जो विधवाओं, अनाथों और नेत्रहीन सहित अन्य जरूरतमंदों आवास, शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करता है।


आरंभिक जीवन

पंडिता रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 को केनरा, मद्रास प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत में मराठी भाषी चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता अनंत शास्त्री डोंगरे, संस्कृत विद्वान थे। उनकी मां का नाम लक्ष्मी डोंगरे था।

उनकी मां का लक्ष्मी की शादी नौ वर्ष की आयु में उनसे काफी बड़े अनंत शास्त्री डोंगरे के साथ हुई। अनंत शास्त्री स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे इसलिए शादी के बाद उन्होंने अपनी पत्नी लक्ष्मी को संस्कृत की शिक्षा दी। जो उस समय के प्रचलित रीति रिवाजों के बिल्कुल विपरीत था।

अनंत शास्त्री डोंगरे और लक्ष्मी ने अपनी पुत्री का नाम रमाबाई डोंगरे रखा। बढ़ती उम्र के साथ उनके पिता ने उन्हें घर पर ही संस्कृत का प्रशिक्षण दिया। उनका एक छोटा भाई भी परिवार में जुड़ा, जिसका नाम श्रीनिवास डोंगरे था।

उनके पिता धर्म परायण व्यक्ति थें, जिस कारण उन्होंने परिवार के साथ पूरे भारत में बड़े पैमाने से यात्राएं की। वे परिवार के साथ भारत के तीर्थ स्थलों पर पुराण पाठों में भाग लेते, जिससे उन्हें थोड़ी जीविका चलाने में मदद मिलती। 

इस तरह तीर्थ स्थलों में भाग लेने से रमाबाई डोंगरे को सार्वजनिक भाषण का अनुभव प्राप्त हुआ। वह इतनी निपुण हो गईं थीं कि वह कुछ युवा लड़कों को भी पढ़ाती थीं, जिसका रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने बहुत विरोध किया। जिस कारण उनके पिता अनंत शास्त्री अपने पूरे परिवार को साथ ले एक निर्जन स्थान पर जाने को मजबूर हो गए।


पंडिता और सरस्वती की उपाधि

1876-78 के भीषण अकाल के दौरान उनके माता - पिता की मृत्यु हो गई और 16 वर्षीय रमाबाई डोंगरे अनाथ हो गईं। रमाबाई डोंगरे और उनके भाई श्रीनिवास ने देश भर में घूमकर संस्कृत ग्रंथों का पाठ करने की अपनी पारिवारिक परम्परा कायम रखी।

वह समय का ऐसा दौर था जब महिलाएं अकसर सार्वजानिक स्थानों पर नहीं आया करती थीं। वह कभी कभी महिलाओं से मिलने उनके निवास स्थान पर जाती और उन्हें शिक्षित होने के लिए प्रेरित करती।

संस्कृत में निपुण महिला के रूप में रमाबाई डोंगरे की ख्याति कलकत्ता तक पहुंच गई और उन्हें पंडितों द्वारा आमंत्रित किया गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में उनके संबोधन को काफी सराहना मिली।

वर्ष 1878 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उनके विभिन्न संस्कृत कार्यों और ज्ञान को मान्यता देते हुए, उन्हें पंडिता और सरस्वती की उपाधि से सम्मानित किया। 


कुलिन वर्ग और ईसाई धर्म से पहला परिचय 

पंडिता रमाबाई और उनके भाई कई संस्कृत विद्वानों से मिल रहे थे। इस बीच ईसाइयों की एक बैठक में सम्मिलित होने के बाद उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ। वे ईसाई पूजा पद्धति से प्रभावित हुए थे।

धर्म सुधारक केशव चंद्र सेन ने पंडिता रमाबाई को हिंदू साहित्यों में सबसे पवित्र वेदों की एक प्रति दी और उसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया।

उनके जीवन में यह एक हलचल जैसा था और उन्होंने अपनी पुरानी मान्यताओं पर प्रश्न करना शुरू कर दिया।


विवाह

वर्ष 1880 में उन्होंने अपने परिवार के आखरी सदस्य अपने भाई को भी खो दिया।

भाई की मृत्यु के बाद 13 नवंबर 1880 को एक सामूहिक समारोह में पंडिता रमाबाई ने एक बंगाली वकील बिपिन बिहारी मेधवी संग शादी की। 

उनके पति बंगाली कायस्थ थे और वह ब्राह्मण थी, वह उस समय का अंतर - जातीय और अंतर - क्षेत्रीय विवाह था। 16 अप्रैल 1881 को उन्होंने बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम मनोरमा रखा।

इसी बीच पंडिता रमाबाई ने संस्कृत की दयनीय स्थिति पर एक कविता लिखी और उसे बर्लिन में होने वाली आगामी ओरिएंटल कांग्रेस में भेज दिया। जिसका अनुवाद उनके परिचय और गहरी सराहना के साथ भारतविद मोनियर विलियम द्वारा पढ़ा गया।

समय की एक चोट ओर बाकी थी, 4 फरवरी 1882 को उनके पति हैजा से ग्रसित हो गए। उस दौरान उनकी चचेरी बहन आनंदीबाई जोशी ( पहली भारतीय महिला डॉक्टर ) के अलावा किसी ने उनकी सुध नहीं ली। 

बीमारी से उनके पति की मृत्यु हो गई। 23 वर्षीय पंडिता रमाबाई अपनी बेटी को ले पुणे चली गईं और महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक संगठन की स्थापना की।


हंटर कमीशन के समक्ष संबोधन

वर्ष 1882 में औपनिवेशिक सरकार द्वारा शिक्षा विभाग के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया गया। उस समय साक्ष्य देते हुए पंडिता रमाबाई ने हंटर कमीशन के समक्ष संबोधन देते हुए कहा, “100 में से 99 मामलों में भारत के शिक्षित पुरुष महिला शिक्षा और उनकी उचित स्थिति का विरोध करते हुए ही पाए जाते है। महिलाओं की ओर से छोटी गलती भी मानो राई का पहाड़ बन जाती है और साथ महिला के चरित्र पर लांछन लगा दिए जाते है।”

साथ ही पंडिता रमाबाई ने सुझाव दिया कि शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाए और महिला स्कूल निरीक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए। आगे अपनी बात को रखते हुए उन्होंने कहा कि भारत में महिलाओं की स्थिति ऐसी है कि वे चिकित्सकीय उपचार कर सकती हैं, इसलिए भारतीय महिलाओं को मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिया जाना चाहिए।

उनकी बातों से काफी सनसनी फैल गई थी और यह खबर महारानी विक्टोरिया के कानों तक भी पहुंच गई।

परिणाम स्वरूप लॉर्ड डफरिन द्वारा महिला चिकित्सा आंदोलन की शुरुआत की गई। 

महाराष्ट्र में पंडिता रमाबाई ने महिलाओं की शिक्षा और चिकित्सा मिशनरी कार्यों में शामिल ईसाई संगठनों से संपर्क किया। विशेषकर द सेंट मैरी द वर्जिन समुदाय (सीएसएमवी) की एंग्लिकन ननो से जुड़ी।


अपनाया ईसाई धर्म

वर्ष 1883 में, अपनी पहली किताब स्त्री धर्म नीति की बिक्री से कमाई और सीएसएमवी से संपर्क के माध्यम से पंडिता रमाबाई चिकित्सा प्रशिक्षण लेने के लिए ब्रिटेन चली गईं। लेकिन उनके पनपते बहरेपन के कारण उन्हें चिकित्सा कार्य में प्रवेश नहीं मिला।

इंग्लैंड में रहते हुए उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया। रूढ़िवादी हिन्दू धर्म नीतियों और महिलाओं के प्रति अव्यवहारिकता के कारण बढ़ते विचारों के कारण उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन करना स्वीकृत किया।

इंग्लैंड में पंडिता रमाबाई का अपने एंग्लिकन गुरुओं, विशेषकर गेराल्डिन के साथ विवादपूर्ण संबंध थे। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ कोई समझौता नहीं किया। उन्होंने एंग्लिकन सिद्धांतों के उन पहलुओं को पूर्ण रूप से नकार दिया जिन्हें वह तर्कहीन समझती थीं।

पंडिता रमाबाई ने शाकाहारी भोजन को ही अपनाए रखा। उन्होंने ईसाई धर्म के ट्रिनिटी सिद्धांत को कभी नहीं माना।

वर्ष 1886 में, भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदी बाई जोशी के स्नातक समारोह में भाग लेने के लिए पेंसिलवेनिया के महिला मेडिकल कॉलेज की डीन डॉ राचेल बोडले के निमंत्रण पर ब्रिटेन से सयुक्त राज्य अमेरिका गई।

पंडिता रमाबाई दो साल तक सयुक्त राज्य अमेरिका में ही रहीं, वहां उन्होंने कई पाठ्यपुस्तकों का अनुवाद किया साथ ही पूरे सयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में व्याख्यान दिए।

वहीं रहते हुए उन्होंने “द हाई कास्ट हिन्दू वुमन” किताब को प्रकाशित किया। इंग्लिश में लिखीं अपनी पहली किताब उन्होंने अपनी चचेरी बहन आनंदीबाई जोशी को समर्पित की। 

यह किताब बाल विवाह और बाल विधवाओं जैसे हिंदू महिलाओं के साथ होने वाले काले पहलुओं के साथ हिन्दू प्रभुत्व वाले ब्रिटिश भारत में महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न को उजागर करने का उनका एक प्रयास था।

अपनी भाषण कला और समर्थकों के बड़े नेटवर्क के माध्यम से उन्होंने भारत में बाल विधवाओं के लिए स्कूल खोलने के उद्देश्य से लगभग 60,000 रुपए जुटाए।

भारत में अपने कार्य के लिए समर्थन मांगते हुए, अमेरिका में प्रस्तुतियां देते समय उनकी मुलाकात अमेरिकी सफ्रागेट और महिला अधिकार कार्यकर्ता फ्रांसिस विलार्ड से हुई।

पंडिता रमाबाई को नवंबर, 1887 में फ्रांसिस विलार्ड द्वारा राष्ट्रीय महिला क्रिश्चियन टेंप्रेंस यूनियन सम्मेलन में वक्तव्य के लिए आमंत्रित किया। जहां उन्हें उस बड़े महिला संगठन का समर्थन प्राप्त हुआ।

वह डबल्यूसीटीयू की राष्ट्रीय वक्ता के रूप में जून, 1888 को भारत आईं। डबल्यूसीटीयू की पहली विश्व प्रचारक मैरी ग्रीनलीफ क्लेमेंट लेविट थीं। पंडिता रमाबाई, 1893 में आधिकारिक तौर पर डबल्यूसीटीयू के साथ जुड़ी।


मुक्ति मिशन की स्थापना 

वर्ष 1889 में, पंडिता रमाबाई भारत लौटीं। भारत आ कर उन्होंने पुणे में बाल विधवाओं के लिए शारदा सदन नामक स्कूल की स्थापना की। उनके द्वारा स्थापित स्कूल को एमजी रानाडे सहित कई हिन्दू सुधारकों का समर्थन मिला।

हालंकि पंडिता रमाबाई धर्म प्रचारक नहीं थीं, लेकिन उन्होंने अपना ईसाई धर्म भी नहीं गुप्त रखा। कई विद्यार्थियों ने अपना धर्म परिवर्तन किया, जिस कारण पुणे के हिंदू सुधार मंडलों का समर्थन उन्होंने खो दिया।

फिर उन्होंने अपना स्कूल पुणे से 60 किलोमीटर दूर एक शांत गांव केडगांव में स्थानांतरित कर दिया। और स्कूल का नाम बदलकर मुक्ति मिशन रखा।

वर्ष 1889 में, भीषण अकाल के दौरान पंडिता रमाबाई ने बैलगाड़ियों के कारवां के साथ महाराष्ट्र का दौरा किया। वहां हजारों जनजातीय बच्चों, अनाथों, बाल विधवाओं और अन्य निराश्रित महिलाओं को बचाया और मुक्ति मिशन में शरण दी।

वर्ष 1900 तक मुक्ति मिशन में 1,500 निवासी और 100 से अधिक मवेशी रहते थे। 


बेटी ने दिया साथ

पंडिता रमाबाई एक स्वतंत्र विचारों वाली महिला रहीं। उन्होंने पति की मृत्यु के बाद अकेले ही बेटी का लालन पालन किया। 

उन्होंने बेटी मनोरमा को सीएसएमवी की बहनों द्वारा वांटेज में और बाद में बॉम्बे विश्वविद्यालय में शिक्षा के लिए भेजा, जहां से मनोरमा ने बीए की डिग्री प्राप्त की। फिर मनोरमा अपनी उच्च शिक्षा के लिए सयुक्त राज्य अमेरिका गई।

भारत लौटने पर मनोरमा ने अपनी मां पंडिता रमाबाई के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर काम किया। मनोरमा ने शारदा सदन की प्रधानाध्यापिका के रूप में कार्य किया। 

वर्ष 1912 के दौरान दक्षिण भारत के एक पिछड़े जिले गुलबर्गा, जो अब कर्नाटक में है में क्रिश्चियन हाई स्कूल की स्थापना में अपनी मां का पूर्ण सहयोग किया।

वर्ष 1920 में जब पंडिता रमाबाई का स्वस्थ्य खराब रहने लगा, तब उन्होंने मुक्ति मिशन का कार्यभार मनोरमा को सौंप दिया। लेकिन इसे क्या कहा जाए पता नही, वर्ष 1921 में मनोरमा की मृत्यु हो गई।

पंडिता रमाबाई को बेटी की मृत्यु का गहरा सदमा लगा। और मनोरमा के निधन के नौ महीने बाद 5 अप्रैल 1922 को 63 वर्ष की उम्र में पंडिता रमाबाई ने भी जीवन को अलविदा कह दिया।

पंडिता रमाबाई की मृत्यु सेप्टिक ब्रोंकाइटिस बिमारी से झूझते हुए हुई।


पुरस्कार और सम्मान 

  • संस्कृत में उनकी कौशलता के लिए 'पंडिता’ और ‘सरस्वती’ की उपाधि 

  • वर्ष 1919 में उन्हें भारत की ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा सामुदायिक सेवा के लिए कैसरी-ए-हिंद पदक दिया गया।

  • 26 अक्टूबर 1989 को, भारतीय महिलाओं की उन्नति में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने स्मारक डाक टिकट जारी की।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ