भारत में इस रंगमंच की दुनिया का पहला थियेटर हिन्दुस्तान की एक महिला के दिमाग की उपज है

बेगम कुदसिआ जैदी एक नाटकार, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। उन्होंने बच्चों और वयस्कों पर समान रूप से कई किताबें लिखी हैं।

एक थिएटर व्यवसायी के रूप में, उन्होंने कई पीढ़ियों के अभिनेताओं और नाटककारों को प्रभावित किया। 

उनका रंगमंच शास्त्रीय और आधुनिक रंगमंच का मिश्रण था, पुराने संस्कृत नाटकों को अपने समय के अनुसार बदलना उनकी प्रतिभा थी।

आज थियेटर को कौन नहीं जानता। मनोरंजन की दुनिया का हर जगह बोल-बाला है। मनोरंजन के क्षेत्र ने बहुत ही वृद्धि कर ली है। इसका हेंगओवर तो इतना है कि बच्चों तक के सर चढ़के बोलता है। और लोकप्रिय कलाकारों के तो लोग दिवाने है।

भारत में इस रंगमंच की दुनिया का पहला थियेटर किसके दिमाग की उपज है? क्या मालूम है आपको?

हमारे देश की महिलाओं को कम आंकना ही सबसे बड़ी मुर्खता है, क्योंकि उनमें हुनर की कोई कमी नहीं है। 

एक उद्योग के रूप में रंगमंच पर हमेशा पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है और आजादी के दौर में यह अलग नहीं था। कई नाटककारों ने विभिन्न भाषाओं के विभिन्न नाटकों पर काम किया और उन्हें अपने अनुसार परिवर्तित कर अपनी शैली विकसित की।

तो आपको बता दें, बेगम कुदसिआ जैदी ने 1957 में हिन्दुस्तान थियेटर की स्थापना की। जो कि आजाद भारत का पहला थियेटर हुआ।

उन्होंने 12 साल के अंतराल में ब्रेख्त से लेकर शॉ तक 20 नाटकों का अनुवाद किया। वह अपने समय की सबसे प्रगतिशील रंगमंच हस्तियों में से एक थीं।

हबीब तनवीर के साथ हिंदुस्तानी रंगमंच की संस्थापक, बेगम कुदसिआ जैदी की दृष्टि पश्चिम के महान नाटकीय कार्यों के सौंदर्यशास्त्र के साथ-साथ भारतीय शास्त्रीय और लोक विरासत में भी डूबी हुई थी। 

कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदुस्तानी थिएटर का पहला प्रोडक्शन “शकुंतला” (1958) था, जिसे मोनिका मिश्रा ने निर्देशित किया था। पश्चिमी नाटककारों में वह इबसेन, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ और बर्टोल्ट ब्रेख्त से प्रभावित थीं। 

विदेशी नाटकों के रूपांतरण, इसके सार और इसकी सार्वभौमिकता को समझ, इसे भारत के सामाजिक जीवन और इसके लोकाचार के साथ तालमेल बिठा देना उनकी अपनी अलग प्रतिभा थी। पात्र भारतीय परिवेश में कार्य करते हैं और पहचाने जाते।

उन्होंने अनेक संस्कृत नाटकों तथा जर्मन नाटकों का भारतीय भाषा में अनुवाद किया।

तो आइये जानते रंगमंच की दुनिया के पहले थियेटर की संस्थापक की कहानी…

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प्रारंभिक जीवन

बेगम कुदसिया जैदी का जन्म 23 दिसंबर 1914 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी थे। वह अपने माता-पिता के साथ ज्यादा समय नहीं बिता सकीं क्योंकि जब वह बच्ची थी तब ही उनकी मृत्यु हो गई थी। 

माता-पिता के निधन के बाद वह अपनी बड़ी बहन जुबैदा और उनके पति अहमद शाह बुखारी पात्रस के साथ रहने लगीं। उनके जीजा एक उर्दू लेखक भी थे और थिएटर में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। 

यानी कि हम कह सकते है कि यह उनका प्रभाव था, जिस कारण कुदसिया जैदी के मन में थिएटर के लिए रुचि उत्पन्न हुई। 

उन्हें साहित्य पढ़ने का बहुत शौक था। और बाद में वह उनके अनुवाद कार्यों में इस्तेमाल होने वाली विभिन्न भाषाओं को सीखने की कोशिश करती थीं।

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शिक्षा

बेगम कुदसिया जैदी ने लाहौर के किन्नर्ड कॉलेज में पढ़ाई की। और बाद में जब वह अपनी बहन के साथ दिल्ली चली गईं, तो वहां वह ऑल इंडिया रेडियो में शामिल हो गईं।

उन्होंने 1937 में अपने साथी कर्नल बशीर हुसैन जैदी से शादी कर ली। जो बाद में लोकसभा के सदस्य और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति बने। 

वह 1948 तक रामपुर में रहीं और कई पुस्तकों का अनुवाद किया। और फिर वह वापस दिल्ली आ गईं।

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करियर

बेगम कुदसिया जैदी का रंगमंच और लेखन के प्रति प्रेम बढ़ता रहा और विकसित होता रहा। 

उन्होंने “चाचा छक्कन के करनामे”, बच्चों के लिए एक नाटक लिखा। भारत के एक प्रमुख शिक्षाविद् डॉ. जाकिर हुसैन ने भी उन्हें बच्चों के लिए लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। जब वे और उनके पति रामपुर में रुके थे, तब डॉ. जाकिर हुसैन के साथ उनके अच्छे संबंध थे। 

उनके पति भी उनको हमेशा प्रोत्साहित करते थे और उनका पूर्ण सहयोग करते थे। उन्होंने कुदसिया जैदी द्वारा जटिल नाटकों को सरल शब्दों में लिखने और अनुवाद करने की उनकी प्रतिभा की हमेशा ही सराहना की।

दिल्ली में, वह भारतीय सांस्कृतिक प्रमुख कमलादेवी चट्टोपाध्याय से मिली और उनके बीच अच्छे रिश्ते बने। 

अपने आस-पास इतने सारे बुद्धिजीवियों और कलाकारों के साथ, उन्हें अपनी प्रेरणा मिली। वह कई सांस्कृतिक संगठनों का हिस्सा बनी। 

जब उनकी उम्र के लोग स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दे रहे थे, तब उन्होंने भारतीय रंगमंच का विकास सुनिश्चित कर लिया था। 

1954 में, वह हबीब तनवीर से मिलीं। वे दोनों एक-दूसरे के प्रशंसक रहे। और जब हबीब तनवीर ने भारत छोड़ दिया तब उन्होंने बेगम कुदसिया जैदी से वादा किया कि वह थिएटर स्थापित करने के लिए एक निर्देशक के रूप में वापस आएंगे। 

बाद में, उन्होंने एक साथ हिंदुस्तानी थिएटर की स्थापना की। कुदसिया जैदी ने कई संस्कृत और विदेशी नाटकों का उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किया। 

1957-58 में हिंदुस्तानी थिएटर दिल्ली में एक पेशेवर शहरी थिएटर बन गया। 

वह भारतीय रंगमंच के लिए योगदान देने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं, जिसने भारत में रंगमंच की दुनिया को संरचित किया।

वह भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का भी हिस्सा रहीं। उनका नाटक “अजार का ख्वाब” भाषा की बाधाओं और अनुवाद पर प्रमुख नाटकों में से एक था।

नाटकों की सही कथा को खोए बिना अनुवादित नाटकों के सार को जीवित रखने की उनकी प्रतिभा उल्लेखनीय थी। 

उनके प्रगतिशील विचारों को उनके नाटकों जैसे “जान हार” के माध्यम से देखा जा सकता है जो एक वेश्या और एक युवा क्रांतिकारी के बीच प्रेम कहानी है।

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निधन

1960 में, केवल 46 वर्ष की आयु में उर्दू रंगमंच की दुनिया को निराशा में छोड़कर बेगम कुदसिया जैदी ने इस दुनिया से विदा ले ली। उनकी अकस्मात रूप से मृत्यु हो गई थी। 

उनकी प्रमुख रचनाओं में हमारा बापू, मिट्टी की गाड़ी (संस्कृत से अनुवाद), शकुंतला (संस्कृत से अनुवाद), खालिद की खाला शामिल हैं।

वह स्वतंत्रता काल के दौरान रंगमंच की पहली महिलाओं में से एक थीं जिन्होंने विभिन्न माध्यमों से कला में योगदान दिया। 

वह साहसी, आत्मविश्वासी और प्रतिभाशाली महिला थीं। उनकी मृत्यु के इतने वर्षों के बाद उनके नाटकों और पुस्तकों के माध्यम से उन्हें आज भी याद किया जाता है। 

हिंदुस्तानी रंगमंच ने हबीब तनवीर, एम एस सथ्यू, मोनिका मिश्रा, श्याम अरोड़ा जैसे कई प्रतिभाशाली कलाकारों का मार्गदर्शन किया। 

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बाद में, उनकी बेटी और थिएटर से जुड़े लोगों ने “गरम हवा” के लिए पटकथा लिखी, जिसने प्रारंभिक भारतीय सिनेमा के अग्रदूतों में लहरें पैदा कीं।

Jagdisha साहसी, आत्मविश्वासी और प्रतिभाशाली हिंदुस्तानी रंगमंच की संस्थापक को सहृदय नमन।

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