नायकी देवी की वीरता की कहानी

नायकी देवी की वीरता की कहानी

एक महारानी जिन्होंने कसाहरादा के युद्ध में मोहम्मद गौरी को परास्त कर दिया था। 

भारत देश केवल वीरों की वीरता का ही साक्षी नहीं बल्कि वीरांगनाओं की गाथाओं का भी गढ़ है।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को तो देश जानता है लेकिन देश की वीरांगनाओं की सूची में और भी बहुत से नाम है जो देश के हर वर्ग को पता होने चाहिए।

इस कतार में एक ऐसा ही नाम है रानी नायकी देवी सोलंकी का।

मुस्लिम शासक मोहम्मद गौरी का नाम तो आपने सुना ही होगा। पद्मावत फिल्म के माध्यम से आप इस नाम से कुछ परिचित हो सकते हैं। कैसे उसने वर्ष 1192 में महाराज पृथ्वीराज चौहान को तराइन के दूसरे युद्ध में हराया। 

इसे विडंबना कहा जाए या कुछ और यह तो पता नहीं लेकिन भारतीय इतिहास के पन्नों में कुछ धुंधलापन है जो उजागर होना आवश्यक है।

मोहम्मद गौरी को वर्ष 1178 के युद्ध में भारत की वीरांगना रानी नायकी देवी सोलंकी ने धूल चटा दी थी।

मोहम्मद गौरी ने वर्ष 1175 से लेकर वर्ष 1206 के बीच कई बार भारत पर हमले किए हैं। मोहम्मद गौरी ने वर्ष 1175 में मुल्तान, वर्ष 1179 में पंजाब, वर्ष 1180 में पेशावर, वर्ष 1185 में सियालकोट पर कब्जा कर लिया था, और महाराज पृथ्वीराज चौहान को हराकर वर्ष 1192 में दिल्ली सल्तनत की नींव रखी।

लेकिन वर्ष 1178 के युद्ध में गुजरात की रानी नायकी देवी सोलंकी के सामने अपने प्राणों को बचाकर भाग खड़ा हुआ था।

कौन थीं रानी नायकी देवी?

रानी नायकी देवी गोवा में जन्मी थीं। वह महाराजा शिवचत्ता परमांडी, कंदब के महामंडलेश्वर की पुत्री थीं। राजकुमारी को बचपन से ही युद्ध कला में पूर्ण रूचि थी। और तीरंदाजी, तलवारबाजी, घुड़सवारी इत्यादि में उन्होंने निपुणता प्राप्त की। साथ ही वह कूटनीतिज्ञ में भी कौशल थीं।

उनका विवाह गुजरात के राजकुमार अजयपाल सिंह सोलंकी के साथ हुआ। सोलंकी राजा को चालुक्य भी कहा जाता है।

राजकुमार अजयपाल, चालुक्य वंशीय महाराज सिद्धराज जयसिंह के पौत्र तथा महाराज कुमारपाल सोलंकी के पुत्र थे।

महाराज अजयपाल सिंह सोलंकी और रानी नायकी देवी के दो पुत्र हुए। उनके बड़े बेटे का नाम मूलराज द्वितीय और छोटे बेटे का नाम भीमदेव द्वितीय था।

वर्ष 1175 में महाराज अजयपाल सिंह को उनके ही अंगरक्षक ने मौत के घाट उतार दिया। महाराज अजयपाल सिंह का कार्यकाल केवल 4 वर्षों का ही रहा । या यूं कहें कि उन्होंने वर्ष 1171 से वर्ष 1175 तक शासन किया।

राज्य की संभाली कमान 

गुजरात राज्य के लिए यह मुश्किल समय की घड़ी थी। कई विदेशी आक्रमणकारियों और दुश्मनों की नजर इस राज्य पर थी। जो महाराज अजयपाल सिंह की मृत्यु के बाद उनके राज्य पर कब्जा जमाना चाहते थे।

अब राजा की इस तरह हत्या के बाद प्रश्न था कि राज्य की कमान कौन संभाले। क्योंकि उनके दोनों पुत्र अभी छोटे थे।

रानी नायकी देवी की राजनीतिक कुशलता और कूटनीतिज्ञ कौशल के विषय में सभी परिचित थे। इसलिए वरिष्ठ मंत्रियों, सामंतों और राज्य के महान दरबारियों ने एक मत से रानी को राज्य की शासिका के रूप में चुना।

लेकिन रानी नायकी देवी ने राजगद्दी पर बैठने से मना कर दिया। उनके मतानुसार राज्य के वारिस उनके पुत्र थे, जो सिंहासन के अधिकारी थे।

राज्य के उत्तराधिकारी मूलराज द्वितीय सोलंकी की आयु और बुद्धि अभी शासक बनने की तो नहीं थी। इसलिए रानी नायकी देवी ने उत्तराधिकारी मूलराज द्वितीय की प्रतिनिधि बन मार्गदर्शक के रूप में राज्य की बागड़ोर संभाली।

मोहम्मद गौरी युद्ध में प्राण बचाके भागा

मोहम्मद गौरी भारत में पूरी तरह पैर पसारने की ताक में था। उसने वर्ष 1175 के युद्ध में मुल्तान पर विजय प्राप्त कर ली थी। उसकी नजर राजपूताना और गुजरात पर थी।

मोहम्मद गौरी एक तुर्की लुटेरा था, जो हवसी और आक्रामक था।

अब वह गुजरात के अन्हिलवाड़ पाटन पर कब्जे की ताक पर था। अन्हिलवाड़ पाटन चालुक्य वंश की राजधानी थी।

अमेरिकी इतिहासकार, टेरटीयस चांडलर के अनुसार वह शहर 1000 ईस्वी में दुनिया का सबसे बड़ा शहर था। और वह 1 लाख से ज्यादा जनसंख्या का प्रदेश था।

मोहम्मद गौरी को जब पता चला कि गुजरात पर एक विधवा रानी और छोटे बच्चे का शासन है तो वह खिल उठा। उसे लगा की एक महिला और बच्चा क्या ही कर सकते हैं। और गुजरात को जीतना उसे बड़ा आसान-सा लगा।

लेकिन मोहम्मद गौरी की यह गलतफहमी जल्दी ही टूटने वाली थी।

मोहम्मद गौरी के आक्रमण की खबर मिलते ही रानी नायकी देवी युद्ध की तैयारियों में जुट गईं। उन्होंने अपनी सेना तैयार की। और साथ ही आस पास के सभी राजाओं से मदद मांगी। उन्हें नद्दूल के चाहमान वंश, जालौर के चाहमान वंश और अरबुदा के परमार के अलावा किसी भी अन्य की मदद नहीं मिली।

रानी नायकी देवी को समझ आ गया था कि मोहम्मद गौरी को परास्त करने के लिए उनकी तैयारी पर्याप्त नहीं है। इसलिए उन्होंने युद्ध की ऐसी रणनीति बनाई जिससे उनकी सेना को लाभ मिले।

उन्होंने आज के माउंट आबू की तलहटी पर स्थित गदरघट्टा को युद्ध क्षेत्र के रूप में चुना। यह राजस्थान के सिरोही जिले के कसाहरादा गांव में स्थित है।

अन्हिलवाड़ से 40 मील दूर वर्ष 1178 में गदरघट्टा मोहम्मद गौरी ने तंबू लगाकर अपना सैन्य शिविर स्थापित किया।

उसने रानी नायकी देवी को दूत के द्वारा संदेश भिजवाया कि रानी स्वयं और अपने दोनों पुत्रों के साथ साथ सभी महिलाओं को धन संपत्ति समेत उसे सौंप दे वरना सभी को जान गवानी पड़ेगी।

जवाब में रानी नायकी देवी ने स्वीकृति दिखाई। जिससे सभी मंत्रियों और सामंतों को बड़ा आश्चर्य हुआ। लेकिन वह तो रानी की उस लुटेरे को पराजित करने की चाल थी।

रानी नायकी देवी ने राज्य की सभी महिलाओं और कन्याओं को सुरक्षा हेतु नाडोल के राजा कल्हण देव चौहान से उनके लिए शरण मांगी। और राजा कल्हण देव चौहान ने उनकी मदद करते हुए सभी महिलाओं और कन्याओं को अपने राज्य में सुरक्षित स्थान दिया।

पूर्व योजना के अनुसार रानी नायकी देवी ने 200 सैनिकों को भेष बदलकर मोहम्मद गौरी की सेना में घुसने का निर्देश दे दिया था। उन्होंने अपने सेनापति कुंवर रामवीर को आदेश दिया कि वह सैनिकों के साथ उनसे कुछ दूरी पर उपस्थित रहे।

कुछ योद्धा आबू पर्वत की तलहटी में छुप गए। और अपनी रणनीति के अनुसार रानी ने अपनी सेना के 25000 सैनिकों को चारों ओर बिखेर दिया।

फिर रानी नायकी देवी ने अपने छोटे बेटे को पीठ पर बांधा और घोड़े पर सवार हो चल दी मोहम्मद गौरी से भिड़ने।

मोहम्मद गौरी तो अपनी जीत सुनिश्चित समझ खुशी से फूले नहीं समा रहा था। 

मोहम्मद गौरी से कुछ ही दूरी पर आ कर रानी रुक गईं। और मोहम्मद गौरी की सेना में छुपे रानी नायकी देवी के सैनिक तुर्की सैनिकों पर हमला करने को तैयार थे।

रानी नायकी देवी सोलंकी के साथ घुड़सवार सैनिक, पैदल सैनिक और हाथियों पर सवार सैनिकों को देख मोहम्मद गौरी तो हक्का बक्का सा रह गया।

वह कुछ भी समझ पाता इससे पहले ही रानी ने तलवार के तेज वार से मोहम्मद गोरी के गुप्त अंग को भंग कर दिया। घायल अवस्था में दर्द से कांपता हुआ मोहम्मद गौरी युद्ध के मैदान से भाग खड़ा हुआ।

मोहम्मद गौरी को अपने प्राण बचा कर भागना पड़ा। इसके बाद उसने कभी गुजरात की ओर मुड़ कर नहीं देखा।

इतिहास के पन्नों में

सोलंकी राजा की राजसभा के कवि, गुजराती कवि सोमेश्वर ने अपने काम में नायकी देवी के बेटे मूलराज के बारे में लिखा कि राजा की सेना ने मोहम्मद गौरी की सेना को परास्त किया।

14वीं शताब्दी के जैन विद्वान, मेरुतुंग ने ‘प्रबंध चिंतामणि’ में नायकी देवी, मूलराजा द्वितीय की माता का उल्लेख किया है। मेरुतुंग ने लिखा कि रानी नायकी देवी ने माउंट आबू के पास गदरघट्टा में मलेच्छ राजा को हराया।

13वीं शताब्दी के फ़ारसी लेखक मिन्हाज-उस-सिराज के लेखों में भी इस युद्ध का उल्लेख मिलता है। 

उस युद्ध में रानी नायकी ने वो कर दिखाया जो एक से एक वीर राजा न कर सके। 

यह बेहद पीड़ादायक है कि इसके बावजूद उनके विषय में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। उस दौर के कई लेखकों ने इस युद्ध का ज़िक्र किया है लेकिन रानी नायकी को इतिहास में वो जगह नहीं मिली जो उनका हक था।

रानी नायकी देवी सोलंकी जैसी महान वीरांगना को कुछ कुंठित मानसिकता के इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया।

वीरांगना नायकी देवी सोलंकी के विषय में अधिक उल्लेखों का न होना दोहरी मानसिकता का परिणाम हो सकता है। लेकिन देश का लगातार गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहना और विदेशी शासकों का लगातार आक्रमण भी इतिहास के पन्नों से ऐसी वीरांगनाओं की उपलब्धियों को नष्ट करने का कारण माना जा सकता है।

भारत देश वीरों और वीरांगनाओं दोनों का है। इसलिए अपनी जड़ों को समझना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि स्त्री पुरुष दोनों के सहयोग से ही देश का विकास सम्भव है।

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