लोकमाता अहिल्याबाई होलकर जीवनी

लोकमाता अहिल्याबाई होलकर जीवनी

मालवा साम्राज्य की मराठा महारानी अहिल्याबाई होलकर एक छोटे राज्य की रानी थी। उनकी कार्यनीति राज्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और सामाजिक हित उन्हें एक अलग सौंदर्य और सम्मान देती है।

अहिल्याबाई प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के बेटे खंडेराव की पत्नी थी। अहिल्याबाई होलकर के पति, फिर 12 साल बाद ससुर और एक वर्ष पूर्व पुत्र की मृत्यु हो जाने के कारण उन्हें साम्राज्य की महारानी घोषित किया गया। और उन्होंने सत्यनिष्ठा से राज्य का कार्यभार संभाला।

वह अपने साम्राज्य को आक्रमणकारियों से बचाने की हमेशा दृढ़ता पूर्वक कोशिश करती रहीं। अहिल्याबाई होलकर युद्ध के दौरान वह स्वयं अपनी सेना में शामिल होकर युद्ध करती थीं। 

उन्होंने बहुत से मंदिर, धर्मशाला, कुएं और बावड़ियों आदि का निर्माण कराया।

एक ओजस्वी, धर्मनिष्ठ और ऊर्जावान शासक के तौर पर अहिल्याबाई होलकर को याद किया जाता है।

आइए जानते है अहिल्याबाई होलकर की जीवन यात्रा…

प्रारंभिक जीवन

अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई 1725 में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले (जो अब अहिल्या नगर के नाम से जाना जाता है)  के जामखेड के चौंडी नामक गांव मे हुआ था।

उनके पिता माणकोजी शिंदे एक सम्मानित धनगर समाज से आते थें, जो गांव के पाटिल (प्रमुख) थें। उनकी माता सुशीला शिंदे थीं।

उस समय शिक्षा व्यवस्था लड़कियों के लिए नहीं थी। इसलिए उनके पिता ने उन्हें लिखना – पढ़ना सिखाया। वह बचपन से ही समझदार थीं और भगवान शिव में उनकी बड़ी आस्था थी।

पेशवा बाजीराव के सेनापति और मालवा क्षेत्र के शासक मल्हारराव होलकर पुणे जाते हुए चौंडी में रुके थे। उन्होंने अहिल्याबाई को गरीबों और भूखों को खाना खिलाते देखा।

अहिल्याबाई की उदारता, धार्मिकता और उच्च चरित्र को देखते हुए उन्होंने अपने इकलौते पुत्र से उनका विवाह कराने का निर्णय लिया। 

वैवाहिक जीवन

10 साल की उम्र में उनका विवाह मल्हारराव होलकर के बेटे खंडेराव होलकर से हो गया। उनके पति का स्वभाव उग्र और चंचल था। उन्होंने धैर्य और समझदारी का परिचय देते हुए अपने पति के गौरव को जगाया। वर्ष 1745 मे उन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम मालेराव रखा गया। और तीन साल बाद उन्होंने एक पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम मुक्ताबाई रखा।

अपने महान पिता के नेतृत्व में खंडेराव एक अच्छे सिपाही बन गए। मल्हारराव होलकर अपनी पुत्रवधु को भी राजकाज की शिक्षा देते रहते थे। अहिल्याबाई होलकर की चतुराई और बुद्धिमता से मल्हारराव होलकर बहुत प्रभावित होते।

अहिल्याबाई होलकर का जीवन सुखमय बीत रहा था। लेकिन वह समय आया जब उनके जीवन मे दुःख की काली घटा ने प्रवेश किया। साल 1954 में जब वह 29 वर्ष की थीं तब उनके पति कुम्भेर युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।

पति प्रेम में वह सती होना चाहती थीं। लेकिन पुत्र के ऐसे चले जाने के बाद मल्हारराव होलकर अपनी पुत्रवधु को नहीं खोना चाहते थे। उन्होंने अहिल्याबाई को सती होने की आज्ञा नहीं दी।

महारानी पद 

अहिल्याबाई होलकर को उन्होंने राज्य, शासन और राजनीतिक शिक्षा का प्रशिक्षण दिया।

12 साल बाद, वर्ष 1766 मे मल्हारराव होलकर देहांत हो गया। फिर खंडेराव के पुत्र मालेराव होलकर शासक हुए। लेकिन वर्ष 1767 में मालेराव की भी मृत्यु हो गई।

अब राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए किसी की तो आवश्यकता निश्चित ही थी। पेशवा की अनुमति और सेना के समर्थन से वह मालवा की महारानी बनी।

उन्होंने सेनापति पद पर तुकोजी होलकर को नियुक्त किया। और तीस वर्षो तक कुशलता पूर्वक शासन किया।

शासन काल

अहिल्याबाई होलकर एक कुशल धनुर्धर थीं। उनका उद्देश्य न्यायपूर्ण और उदारता से देश की स्थिति में सुधार करना था।

20 लाख रुपये का निजी भंडार रानी अहिल्याबाई के पास था जो मल्हारराव होलकर ने उन्हें दिया था। इस अतिरिक्त व्यक्तिगत संपत्ति से सालाना लगभग 4 लाख की आय होती थी, जिसे वह अपने विवेक से खर्च करती थी। 

शेष सभी सरकारी राजस्व को एक सामान्य खाते में लाया गया और सरकार के सामान्य व्यय पर लागू किया गया। लेखा-जोखा अत्यंत सटीकता के साथ रखा जाता था। 

रानी अहिल्याबाई अपनी राजधानी महेश्वर ले गईं। वहां उन्होंने अहिल्या महल का निर्माण करवाया। टेक्सटाइल इंडस्ट्री इस महल के चारों ओर बनी राजधानी की पहचान बनी। 

राजधानी महेश्वर को एक साहित्यिक, संगीतमय और कलात्मक तथा औद्योगिक केंद्र में बदल दिया गया। वहां एक कपड़ा उद्योग स्थापित किया गया, जो अब प्रसिद्ध महेश्वर साड़ियों का घर है।

मराठी कवि मोरोपंत, शाहिर अनंतफंडी और संस्कृत विद्वान खुलासी राम उनके कार्यकाल के महान व्यक्तित्व थे।

हर दिन वह अपनी प्रजा से बात करती थी। उनकी समस्याएं सुनती थी। हर रूप से उन्होंने अपने राज्य को समृद्ध बनाया।

रानी अहिल्याबाई का विचार था कि धन, प्रजा व ईश्वर की दी हुई वह धरोहर, जिसकी वह केवल संरक्षक मात्र हैं। उनके शासनकाल में जाति भेद जैसी कोई मान्यता अपने पैर न पसार सकी। उनके लिए सारी प्रजा का हित सर्वोपरि था, न कि जन्म-जाति।

उन्होंने महिलाओं की भी एक सेना बनाई। उन्होंने विधवाओं को उनके पति की संपत्ति में अधिकार दिलाया। और यह सुनिश्चित किया कि उन्हें बेटा गोद लेने की अनुमति दी जाए।

वह एक उत्कृष्ट राजनीतिज्ञ भी थीं। उन्होंने अधिकांश मामलों को शांतिपूर्वक और सहजता से सुलझाया। केवल एक बार वह भीलों और गोंडों के साथ संघर्ष को हल करने में सक्षम नहीं हुईं। इस संघर्ष को बंजर पहाड़ी भूमि का अधिकार देकर हल किया गया था। 

अपनी चतुरता से उन्होंने 1772 के एक पत्र के माध्यम से पेशवा को ब्रिटिश इरादों के बारे में चेतावनी दी थी।

उनके कार्यकाल के दौरान व्यापारियों, शिल्पकारों और कलाकारों ने बेहतरीन उत्पादों का उत्पादन किया और नियमित रूप से वेतन प्राप्त किया।

रानी अहिल्याबाई ने इंदौर को एक छोटे-से गांव से आकर्षक शहर बनाया। उन्होंने मालवा में विभिन्न सड़कों एवं किलों का निर्माण कराया।

रानी अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मंदिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया। साथ ही उन्होंने कई मार्ग बनवाए और जो खराब हो गए थे उन्हें सुधरवाया। 

उन्होंने भूखों के लिए अन्नसत्र खोले, प्यासों के लिए प्याऊ का निर्माण करवाया। और शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति की।

रानी अहिल्याबाई ने साथ ही काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए और धर्म शालाएं बनवाई।

दुःख के घेरे में एक बार फिर से वह घिरी जब अहिल्याबाई की आयु बासठ (62) वर्ष के लगभग थी, दौहित्र नत्थू चल बसे। चार वर्ष पीछे दामाद यशवन्तराव फणसे न रहे और इनकी पुत्री मुक्ताबाई सती हो गई।

योगदान

उन्होंने पूरे भारत में कई मंदिरों और अन्य हिंदू तीर्थस्थलों का नवीनीकरण किया।  

बनारस का वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर उन्हीं के द्वारा पुनर्निर्माण करवाया गया। सोमनाथ में एक छोटा मंदिर बनाया गया था, आज हम जो बड़ा मंदिर देखते हैं वह आजादी के बाद बनाया गया था। बिहार के गया में मंदिर का निर्माण कराया जहां हिंदू पिंडदान या मृत्यु के बाद के अनुष्ठान करते हैं। 

ट्रैवल ब्लॉगर जयदीप दत्ता के अनुसार, “उन्होंने एलोरा, सोमनाथ, काशी विश्वनाथ, केदारनाथ, प्रयाग, चित्रकुट, पंढरपुर, परली वैजनाथ, कुरूक्षेत्र, पशुपतिनाथ, रामेश्वर, बालाजी गिरि, एकलिंगजी, पुष्कर सहित विभिन्न मंदिरों का पुनर्निर्माण, नवीनीकरण और वार्षिक रखरखाव के कार्य किए।

जवाहरलाल नेहरू जी (डिस्कवरी ऑफ इंडिया, 2004) के अनुसार “मध्य भारत में इंदौर की अहिल्याबाई का शासनकाल 30 वर्षों तक चला। यह उस काल के रूप में लगभग प्रसिद्ध हो गया है, जिसके दौरान उत्तम व्यवस्था और अच्छी सरकार कायम थी और लोग समृद्ध थे। वह एक बहुत ही सक्षम शासक और संगठनकर्ता थीं, जिनका उस समय बहुत सम्मान किया जाता था। उनके जीवनकाल में, और उनकी मृत्यु के बाद कृतज्ञ लोगों द्वारा उन्हें संत माना गया।” 

निधन 

रानी अहिल्याबाई का 70 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके सेनापति तुकोजी राव होलकर उनके उत्तराधिकारी बने। 

इन्दौर में प्रति वर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिल्योत्सव होता चला आ रहा है। अहिल्याबाई जब 6 महीने के लिये पूरे भारत की यात्रा पर गई तो गांव उबदी के पास स्थित कस्बे अकावल्या के पाटीदार को राजकाज सौंप गई, जो हमेशा वहाँ जाया करते थे। उनके राज्य संचालन से प्रसन्न होकर अहिल्याबाई ने आधा राज्य देेने को कहा परन्तु उन्होंने सिर्फ यह माँगा कि महेश्वर में मेरे समाज लोग यदि मुर्दो को जलाने आये तो कपड़ों समेत जलाएं।

अहिल्‍याबाई होल्‍कर को एक ऐसी महारानी के रूप में जाना जाता है, जिन्‍होंने भारत के अलग अलग राज्‍यों में मानवता की भलाई के लिये अनेक कार्य किये थे। इसलिये भारत सरकार तथा विभिन्‍न राज्‍यों की सरकारों ने उनकी प्रतिमाएँ बनवाई हैं। 

उनके नाम से कई कल्‍याणकारी योजनाएं भी लागू की गई है।

ऐसी ही एक योजना उत्तराखण्ड सरकार की ओर से भी चलाई जा रही है। जो अहिल्‍याबाई होल्‍कर को पूर्णं सम्‍मान देती है। इस योजना का नाम ‘अहिल्‍याबाई होलकर भेड़ बकरी विकास योजना’ है। अहिल्‍याबाई होल्‍कर भेड़ बकरी पालन योजना के तहत उत्तराखण्ड के बेरोजगार, बीपीएल राशनकार्ड धारकों, महिलाओं व आर्थिक के रूप से कमजोर लोगों को बकरी पालन यूनिट के निर्माण के लिये भारी अनुदान राशि प्रदान की जाती है।

वर्ष 1996 में इंदौर के प्रमुख नागरिकों ने उनके नाम पर एक पुरस्कार की स्थापना की, जो हर साल एक उत्कृष्ट सार्वजनिक हस्ती को दिया जाता है। 

पहला पुरस्कार भारत के प्रधान मंत्री द्वारा नानाजी देशमुख को प्रदान किया गया था। 

25 अगस्त 1996 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया। 

इंदौर के हवाई अड्डे का नाम उनके नाम पर “देवी अहिल्याबाई होल्कर हवाई अड्डा” रखा गया है। उनके सम्मान में इंदौर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर देवी अहिल्या विश्वविद्यालय कर दिया गया। 

उनका जीवन इतिहास के पन्नों में चमक रहा है और उनकी उपलब्धियाँ और संघर्ष भारत की कई पीढ़ियों को प्रेरित करेंगे।

Jagdisha: महान शासक और उत्कृष्ट व्यक्तित्व से लबालब रानी अहिल्याबाई होलकर को सादर प्रणाम! 🙏

सभी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि वे लेख को पूरा पढ़ें और इसे अपने सभी मित्रों के साथ साझा करें। धन्यवाद!

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ