कभी सिर पर ढौया करती थी मैला, किसी को छू भी लेना था, अपराध : अब कर चुकी हैं 5 देशो की यात्रा और 2020 मे Padma Shri Award से भी हैं सम्मानित

सुबह उठकर टोकरी, बाल्टी और झाड़ू को पकड़ कर, गाँव के शौचालयों को साफ करना और इंसान के मैला को सिर पर ढोना, जीवन की ऐसी बदहाली से गुजर चुकी हैं उषा चौमर| ‘सुलभ इंटरनेशनल’ नामक संस्था से जुड़कर बदल गईं जिंदगी और आज वह स्वच्छता के लिए संघर्ष और मैला ढोने के खिलाफ आवाज उठाने वाली इस संस्था की अध्यक्ष हैं| उषा आज ऐसी सैकड़ों महिलाओं की आवाज हैं|

प्रधानमंत्री मोदी उषा को वर्ष 2015 में स्वच्छता के लिए सम्मानित भी कर चुके हैं| उनके निश्छल और निस्वार्थ भाव से स्वच्छता अभियान जागरूकता को बढ़ावा देते हुए निरंतर प्रयासों के लिए उन्हें, वर्ष 2020 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया|

हालांकि, मैला ढोने वाली भेदभावपूर्ण प्रथा पर 1993 में ‘द एम्प्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजिंग एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (निषेध) अधिनियम’ द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन आज भी भारत के कुछ हिस्सों में इसका प्रचलन जारी है|
उषा राजस्थान के भरतपुर के पास डेग गाँव में एक दलित परिवार में जन्मी थी| उन्होंने अपनी मां के साथ मात्र 7 साल की उम्र में मैला ढोना शुरू किया था| घर में पानी का कनेक्शन नहीं था, तो करीब दो किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पड़ता था| महज 10 साल की उम्र में उनकी शादी अलवर में स्थानीय नगरपालिका के सफ़ाईकार से करवा दी गईं| शादी के 4 साल बाद यानी 14 साल की उम्र में गौना हो गया और वे ससुराल चली गईं|

ससुराल में भी उन्हें सास, दो ननद, देवरानी और जेठानी के साथ मैला ढोना पडा| उन्हें यह काम बिल्कुल पसंद नही था| अखीर कहाँ किसको किसी का मैला उठाना पसंद होता है|

काम से लौटने के बाद खाना खाने की इच्छा नहीं होती थी| लेकिन उनके पास कोई दूसरा रास्ता भी तो नही था| क्योंकि उनके समाज के लोगों के साथ बहुत छुआछूत हुआ करता था, अगर कभी प्यास भी लगती तो पानी भी ऊपर से पिलाया जाता था|

किसी को छूना तक अपराध माना जाता था| अगर गलती से किसी को छू दिया, तो उन्हें धमकाया जाता था और बहुत बुरा-भला कह कर धुतकारा जाता था| दुकान से सामान खरीदने नही दिया जाता था| मंदिर तक में जाने की मनाई थी|
घरों से उन्हें इस काम के बदले पुराने कपड़े तो किसी के घर से रात का बासी खाना, झोली में दूर से डाला दिया जाता था| मेहनताने के एवज पर एक घर के प्रति सदस्य के 10 रुपए मिलते थे और वो भी फेंक कर दिए जाते थे| परिवार की औरतें क़रीब 300 रुपए महीने के कमा लेती थी और घर के पुरुष साफ़ सफ़ाई का काम करते थे|

साल 2003 में उनके जीवन में बड़ा बदलाव उस समय आया, जब वे सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक से मिलीं| डॉ. बिंदेश्वर पाठक अलवर मैला ढोने वाले लोगों की जीवन दिशा को नई राह के साथ काम करने के उद्देश्य से गए थे| परन्तु उस वक्त स्थिति ऐसी थी कि कोई भी उनसे मिलने के लिए तैयार नहीं था|

2003 की गर्मियों के मौसम में जब वे मैला ढोने जा रही थी| डॉ बिंदेश्वर ने उन्हें और उनके साथ की ओर महिलाओं को रोक कर बात करना चाही, वे सब घूंघट में थीं| उन्हें लगा जाने कौन है, जो बेमतलब बात करना चाहता है और थोडी झिझक भी थी क्योंकि पराए मर्दों से वे बात नहीं करते थे|
उन्हें लगा कोई नेता होंगे जो बिजली, पानी की बात करेंगे| लेकिन जब डॉ बिंदेश्वर ने उनसे पूछा कि ये काम क्यों कर रहे हो, कितने पैसे मिलते हैं? उस पर उन्होंने जवाब दिया कि उनके पुरखे सालों से ये काम करते आ रहे हैं, तो वो कैसे छोड़ दें|
लेकिन जब कई महिला समूह उनके साथ काम करने के लिए तैयार नहीं हुई तो उषा के नेतृत्व में किसी तरह से महल चौक में महिलाओं को इकट्ठा किया गया| और बातचीत कर एक महिला समूह को तैयार किया गया|
 

उषा डॉ. बिंदेश्वर की संस्था ‘नई दिशा’ से अलवर में जुड़ीं और 1500 रुपए महीने के वेतन से वहां काम करना शुरू किया|
पहले समूह में 28 महिलाएँ जुडी| उन्हें वहाँ सेवई, पापड़, दीए की बाती, सिलाई, कढ़ाई और जूट का बैग बनाने का काम दिया गया| उन्हें सिलाई, मेहदी और ब्यूटिशियन का काम सिखाया गया|

संस्था ने उन्हें पढ़ना भी सिखाया| उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी और आज वे बिना किसी डर के कई लोगों के सामने बोल सकती है|

आज पूरी तरह उषा के जीवन की तस्वीर बदल चुकी है| सुलभ इंटरनेशनल के एनजीओ नई दिशा ने उन्हें उस जिंदगी से आजादी दिलाई|

2010 तक अलवर की सभी मैला ढोने वाली महिलाओं को उन्होंने अपने साथ जोड़ लिया| इस काम से इन लोगों की आमदनी में भी काफी बढ़ोतरी हुई|

अब उषा ना केवल एक प्रभावशाली वक्ता बन गईं, बल्कि उन्होंने मैला ढोने जैसी कुप्रथा के खिलाफ अपनी आवाज भी उठाई| दुनिया भर में घूम-घूमकर महिलाओं को प्रेरित भी किया|

इस काम की वजह से वे अमरीका, पेरिस, न्यूयॉर्क, दक्षिण अफ्रीका और लंदन की यात्रा कर चुकी है। कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी भेट की है, और उन्हें राखी भी बाँधी हैं|

उन्होंने 2017 में वेदों की रचनाएं पढ़ना सीखा और प्रधानमंत्री के समक्ष वेदों का पाठ भी किया|

साल, 2008 में उनके बनाए कपड़ों को ही पहनकर विदेशी मॉडल ने मिशन सेनिटेशन के तहत यूएन की ओर से आयोजित कार्यक्रम में कैट वॉक किया था| 36 महिलाओं ने जिसमें उनकी देवरानी और जेठानी शामिल थी सबने वहाँ कैटवॉक किया था|

उषा चौमर ने मैला ढोने वाली अलवर की 157 महिलाओं का जीवन बदल दिया और उन्हें आत्मनिर्भर बनाया|

सुलभ इंटरनेशनल संस्था की ओर से मैला ढोने वाली महिलाओं को पूर्व में सुभाष चौक स्थित जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करा सामूहिक आरती कराई गई| बाद में उनकी बस्ती में सामूहिक भोज का आयोजन भी किया गया|

वे वाराणासी में अस्सी घाट की सफाई कार्य में शामिल हुई| इसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वर्ष 2015 में उन्हें पुरस्कृत किया|

उन्हें ब्रिटिश एसोसिएशन ऑफ साउथ एशियन स्टडीज (बीएएसएएस) के सालाना सम्मेलन में स्वच्छता और भारत में महिला अधिकार विषय पर संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था|

उन्हें कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम में स्पेशल गेस्ट के रूप में आमंत्रित किया गया था|

आज वह सुलभ इंटरनेशनल संस्था की अध्यक्ष बन गई हैं|

अलवर शहर के हजूरी गेट निवासी उषा के पति मजदूरी करते हैं|उनके तीन बच्चे हैं – दो बेटे और एक बेटी| बेटी ग्रेजुएशन कर रही है और एक बेटा पिता के साथ ही मजदूरी करता है| उषा को इस बात का संतोष है कि उनकी आगे की पीढी को यह गंदा काम नही करना पडेगा|

पहले जिस समाज में किसी को छू लेना भी उनके लिए अपराध था, आज वहीं के लोग उन्हें अपने घर पर बुलाते हैं| शादी सामारोह में उनका विशेष स्वागत करते हैं| अब वह मंदिरों में जाकर पूजा-पाठ भी कर पाती हैं|

एक महिला जो कभी स्वयं के अधिकार के लिए नहीं बोल पाती थी, आज वह देश के सैकड़ों मैला ढोने वाले लोगों की बुलंद आवाज बन गई है| एक कमजोर और अछूत महिला से आत्मविश्वासी और सम्मानजनक जीवन जी रहीं उषा महिला सशक्तिकरण का एक सटीक उदाहरण बन के उभरी हैं|

Jagdisha की ओर से महिला सशक्तिकरण की प्रतिबिम्ब को सादर प्रणाम और अनेकानेक शुभकामनाएं|

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