संघर्ष जीवन की वह कड़ी है जो विवशता, मुश्किलों,असफलताओं को सफलता से जोड़ती है| अगर हौसला बुलंद है तो मुशिकले अपने आप दम तोड़ने लगती है| इसमे कोई दो राय नही है कि जब भी कोई निराशाजनक स्थिति या फिर मुश्किलों से घिरा होता है, तब कोई आपका सहारा नही बनता क्योकि वह आपका समय है आपको खुद अपना सहायक बनना है| परीक्षा का समय जब आपका है, पास या फ़ैल आपको होना हैं तो भला कोई और क्यों आपकी जगह परीक्षा में बैठेगा| जीवन का दूसरा नाम है संघर्ष, जिसने इस राह को पार कर लिया तो समझो सफलता दौड़ती हुई आएगी और मुश्किलें मुँह छुपाती हुई जाती दिखाई देती है|
संघर्ष और महिला उद्यमिता की सफल मिसाल है, कल्पना सरोज| पद्मश्री कल्पना सरोज ने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव का सामना किया और अंततः प्रतिष्ठित उद्यमी के रूप अपनी पहचान बना चुकी है| कल्पना सरोज का जीवन किसी फ़िल्मी कहानी जैसा प्रतीत होता है, किन्तु ये कोई रुपहले पर्दे की कोई काल्पनिक कहानी नही है जीवन के संघर्ष की शत-प्रतिशत सच्ची कहानी है|
कल्पना सरोज का जन्म सन 1961 में महाराष्ट्र के अकोला जिले के छोटे से गाँव रोपरखेड़ा के गरीब दलित परिवार में हुआ था| उनके पिता महाराष्ट्र पुलिस में हवालदार थे| उनके परिवार में कमाने वाले केवल उनके पिता थे,जिनका वेतन मात्र 300रु. था| जिसमे उनके दो भाई, तीन बहन , दादा-दादी, तथा चाचा जी के पूरे परिवार का खर्च चलता था। पुलिस हवलदार होने के नाते उनका पूरा परिवार पुलिस क्वार्टर में रहता था।
कल्पना सरोज की शिक्षा गाँव के सरकारी स्कूल में प्रारंभ हुई थी, वे पढाई में होशियार थीं पर दलित होने के कारण यहाँ भी उन्हें शिक्षकों और सहपाठियों की उपेक्षा झेलनी पड़ती थी। उनके गाँव में कोई सुख-सुविधाएं नहीं थी| स्कूल से लौटने के बाद अकसर उन्हें गोबर उठाना, खेत में काम करना और लकड़ियाँ चुनने का काम करना पड़ता था|
समाज के दौहरे रीति-रिवाजो के चलते सिर्फ 12 साल की उम्र में जब वे 7वी कक्षा पढ़ रही थी,उनकी पढाई छुडवा कर तब उनकी शादी उनसे बड़े लड़के के साथ करवा दी गई| शादी के बाद वे मुंबई चली गई जहाँ उन्हें झोपड़पट्टी इलाके में रहना पड़ा| उनके ससुराल में उन्हें काफी यातनाये सहनी पड़ी जिससे उनकी मानसिकता पर गहन आघात हुआ| उन्हें छोटी छोटी बातो पर मारा-पिटा जाता था और खाना भी नही देते थे| शादी के 6 महीने बाद उनकी स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी इसी बीच उनके पिता उनसे मिलने आये और उनकी बद से बत्तर हालत देख कर उनके पिता उन्हें अपने साथ वापस गाँव ले गये|लेकिन समाज की रूढ़िवादिता के कारण उन्हें जीवन जीना कष्टदायक और मरना आसान महसूस होने लगा|
अजीब ही परम्परा है, ये समाज की बेटी ससुराल जाये डोली में और वहां से विदा हो अर्थी में| एक बेटी असहनीय कष्ट सहती रहे तो संस्कारी वरना चरित्रहीन | जुल्म सहते सहते अगर मर जाये तो हाय कितने निर्दयी थे ससुरालवाले, कोसने लगते बस और कुछ दिन बाद सब शांत | क्यों मरने का इतजार होता है , विरोध करने के वजाय| अगर बेटी शादी के बाद पिता के घर वापस आ जाये तो ये समाज उस लड़की पर ही फब्तियां कसने लगता है | यही कल्पना सरोज के साथ भी हुआ, और समाज के दबाव को झेलना उनके लिए बहुत मुश्किल हो गया| जिस कारण उन्होंने आत्महत्या करने की कोशिश भी करी | उन्होंने खटमल मारने वाले ज़हर की तीन बोतलें खरीदीं और तीनो बोतले एक साथ पी गई लेकिन उनकी बुआ ने उनके मुंह में झाग निकलता देख और बुरी तरह से कांपती देख डॉक्टर की सहायता ली और उनकी जान बच गयी|
इस घटना के बाद उन्हें ये समझ आया की ईश्वर ने उन्हें एक ओर मौका दिया है और जब कुछ करके मरा जा सकता है तो कुछ करके जिया जाये वह ज्यादा अच्छा है| उनके मस्तिष्क में एक नई चेतना जागृत हुई और अब कुछ बहतर करने की इच्छा और विश्वास ने उनके मन-मस्तिष्क में घर कर लिया| इस घटना के बाद उन्होंने कई जगह नौकरी पाने की कोशिश की पर उनकी छोटी उम्र और कम शिक्षा की वजह से कोई भी काम न मिल सका| इसलिए एक बार फिर उन्होंने मुंबई की ओर रुख किया। 16 साल की उम्र में वे अपने चाचा के पास मुंबई आ गयी। वो सिलाई का काम जानती थीं, इसलिए उनके चाचा जी उन्हें एक कपड़े की मिल में काम दिलाने ले गए लेकिन मशीन चलाना अच्छे से जानने के बावजूद वहाँ पर उनसे मशीन चली ही नहीं, इसलिए उन्हें धागे काटने का काम दे दिया गया, जिसके लिए कल्पना जी रोज के दो रूपये मिलते थे। कुछ दिनों तक उन्होंने धागे काटने का काम किया पर जल्द ही अपना आत्मविश्वास वापस पाने में समर्थ हुई और फिर मशीन भी चलाने लगीं जिसके लिए उन्हें महीने के सवा दो सौ रुपये मिलने लगे।
इसी बीच उनके पिता की नौकरी छुट जाने के कारण उनका पूरा परिवार मुम्बई आ गया| समय के साथ-साथ उनके परिवार में स्थिरता आने लगी थी लेकिन एक ऐसी घटना घटी जिसने उन्हें झकझोर कर रख दिया। उनकी बहन की बीमारी के कारण मृत्यु हो गई क्योकि इलाज के लिए पर्याप्त रूपए नही थे| इस घटना के कारण वो एक बार को हतोत्साह जरुर हुई परन्तु साथ में यह एहसास भी हुआ की इस जीवनकाल में कमाई का भी महत्वपूर्ण रोल होता है और उनके अन्दर की छुपी हुई उद्यमी से धीरे-धीरे उनकी पहचान हुई|
उन्होंने अपनी जीवन में गरीबी मिटाने का प्रण लिया। अपने छोटे से घर में ही उन्होंने कुछ सिलाई मशीने लगा लीं और 16-16 घंटे काम करने लगीं, उनकी कड़ी मेहनत और कर्मनिष्ठा आज भी बरकरार है। पर सिलाई से संतोषजनक धन नही जुटा पा रही थी और फिर उन्होंने बिजनेस करने का निर्णय किया| पर किसी भी बिजनेस को शुरू करने के लिए एक धनराशी की जरुरत होती है| बिजनेस करने के लिए उन्होंने सरकारी अनुदान लेने का प्रयत्न किया जिसके लिए उन्होंने एक व्यक्ति से जी लोगो को सरकारी अनुदान दिलाने का काम किया करता था उससे सहायता लेने की सोची वह व्यक्ति उन्ही के इलाके में रहता था|
कल्पना जी रोज सुबह 6 बजे उसके घर के सामने जाकर बैठ जातीं। कई दिन बीत गए पर वो इनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देता था पर 1 महीने बाद भी जब कल्पना जी ने उसके घर के चक्कर लगाने नहीं छोड़े तो मजबूरन उसे बात करनी पड़ी। उसी व्यक्ति से उन्हें पता चला कि अगर 50 हज़ार का लोन चाहिए हो तो उसमे से 10 हज़ार इधर-उधर खिलाने पड़ेंगे। पर ये बात उन्हें मान्य नही थी इसलिए उन्होंने दलित एवं पिछड़ों को मिलने वाले सरकारी अनुदानों के विषय में जानकारी एकत्र की और जैसे-जैसे उन्हें अनुदान लेने की प्रक्रिया समझ तो इससे सम्बन्धित समस्याओ से निपटने के लिए उन्होंने कुछ लोगों के साथ मिलकर एक संगठन बनाया जो लोगों को सराकरी योजनाओं के बारे में बताता था और अनुदान दिलाने में मदद करता था। साथ ही उन्होंने लोगों एवं महिलाओं को भी स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना शुरू किया| उन्होंने अपने संगठन के द्वारा पिछड़ों, आदिवासियों, बच्चों, बुजुर्गों एवं दुर्बलों यानी सभी कमजोर वर्ग के हित के लिये बहुत से काम किये| इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से कार्य करते-करते उनकी छवि एक समाजसेवी के रूप में स्थापित होती चली गई|
कल्पना जी ने खुद भी महाराष्ट्र सरकार द्वारा चलायी जा रही महात्मा ज्योतिबा फुले योजना के अंतर्गत 50,000 रूपये का लोन लिया और 22 साल की उम्र मे फर्नीचर का बिजनेस शुरू किया जिसमे इन्हें काफी सफलता मिली और फिर उन्होंने एक ब्यूटी पार्लर भी खोला। उन्होंने दूसरा विवाह एक स्टील फर्नीचर व्यापारी के साथ किया| उनके दो बच्चे हुए, एक बेटा और एक बेटी जिनके पालन-पोषण का सभी दायित्व कल्पना जी ने ही लिया क्योकि 1989 में उनके पति का निधन हो गया था|
विवादस्पद जमीन और कामानी ट्यूब्स लिमिटेड कंपनी में अपनी समझ और समर्थ के बल पर पाई बड़ी कामयाबी
कल्पना जी को 2.5 लाख रूपये की एक जमीन खरीदने का एक प्रस्ताव मिला पर उनके पास इतने रूपये नही थे तो उस प्लाट मालिक ने पहले 1 लाख रूपये देने को कहा और बाकि बाद में तब कल्पना जी 1 लाख रूपये अपनी जमा पूंजी और उधार लेकर उस व्यक्ति को दिए| लेकिन बाद में उन्हें पता चला की की ज़मीन विवादस्पद है, और उसपर कुछ बनाया नहीं जा सकता। उन्होंने डेढ़ से दो साल की भाग-दौड़ करके उस ज़मीन से जुड़े सभी मामले सुलझा लिए और 2.5 लाख की वह जमीन 50 लाख की कीमत की बन गई।
वर्ष 2000 में करोडो के कर्ज में डूबी कमानी ट्यूब्स कम्पनी की मजदूर यूनियन कल्पना जी के पास गई और उस कम्पनी को फिर से खड़ा करने के लिए उनकी मदद मांगी|
कमानी ट्यूब्स कम्पनी की नीव श्री एन.आर कमानी द्वारा 1960 में डाली गयी थी। शुरू में तो कम्पनी सही चली पर 1985 में मजदूर यूनियन और संचालको में विवाद होने के कारण ये कम्पनी बंद हो गयी। 1988 में उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार इसे दुबारा शुरू किया गया पर एक ऐतिहासिक फैसले में कम्पनी का मालिकाना हक मजदूर यूनियन को दे दिया गया। मजदूर यूनियन इसे ठीक से चला नहीं पाए और कम्पनी पर करोड़ों का कर्ज आता चला गया।
कल्पना जी ने जब जाना कि कम्पनी 116 करोड़ के कर्ज में डूबी हुई है और उस पर 140 मुक़दमे चल रहे हैं तो उन्होंने मना कर दिया पर जब उन्हें बताया गया कि इस कम्पनी पर 3500 मजदूरों और उनके परिवारों का भविष्य निर्भर करता है और बहुत से मजदूर भूख से मर रहे हैं और भीख मांग रहे हैं, तो अंततः वे मान गईं ।
उन्होंने सबसे पहले 10 लोगों की एक टीम तैयार की, जिसमे अलग-अलग फील्ड के एक्सपर्ट थे। फिर उन्होंने बकाया रुपयों की रिपोर्ट तैयार करायी । जिसमे उन्हें पता चला कि कंपनी पर जो उधार था उसमे आधे से ज्यादा का कर्जा पेनाल्टी और इंटरेस्ट था। कल्पना जी तत्कालीन वित्त मंत्री से मिलीं और वित्त मंत्री ने बैंकों को कल्पना जी के साथ मीटिंग करने के निर्देश दिए। वे कल्पना जी की बात से प्रभावित हुए और न सिर्फ ने सिर्फ पेनाल्टी और इंटरेस्ट माफ़ किये बल्कि एक महिला उद्यमी द्वारा प्रयास को सराहते हुए कर्ज मूलधन से भी 25% कम कर दिया।
कल्पना जी 2000 से कम्पनी के लिए संघर्ष कर रही थीं और 2006 में कोर्ट ने उन्हें कमानी इंस्ट्रीज का मालिक बना दिया। कोर्ट ने आदेशानुसार उन्हें 7 साल में बैंक के लोन चुकाने के निर्देश दिए गए जो उन्होंने 1 साल में ही चुका दिए। कोर्ट ने उन्हें मजदूरो के बकाया वेतन भी तीन साल में देने को कहे जो उन्होंने तीन महीने में ही चुका दिए। कल्पना सरोज जी के धैर्य और सही कार्यनीति द्वारा आज कमानी ट्यूब्स 500 करोड़ से भी ज्यादा की कंपनी बन गयी है।
उनकी इस महान उपलब्धि के लिए उन्हें 2013 में पद्म श्री सम्मान से सम्मानित किया गया र कोई बैंकिंग बैकग्राउंड ना होते हुए भी सरकार ने उन्हें भारतीय महिला बैंक के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स में शामिल किया।
कल्पना सरोज जी की कहानी हर वर्ग को ये प्रेरणा देती है की अगर इरादों में दृढ़ता है और परिस्थितियों को समझने के लिए धैर्यवान हो तो हालात और किस्मत दोनों को बदला जा सकता है|
Jagdisha, कल्पना जी और उनकी आत्मनिर्भरता व साहस और समाज को बदलने के जज़्बे को सलाम करता है और उनके इस साहसी कदम से अनेकानेक महिलाओं को हिम्मत और प्रेरणा मिलेगी | निश्चित रूप से समाज के लोग कल्पना सरोज जी की हिम्मत और साहस से प्रेरित होंगे |
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