अमृता प्रीतम का जीवन परिचय

Life Story of Amrita Pritam


पंजाबी लेखकों में प्रसिद्ध हैं इनका नाम। जीवन की बड़ी अतरंगी सी कहानी है, मानो कोई फिल्म चल रही है। जिसे किसी लेखक ने बड़े रोमांचक ढंग से लिखा हो।

11 वर्ष की आयु में मां का निधन, जिसके बाद कविताओं से प्रेम बढ़ा। 16 की उम्र में शादी और उनकी लिखी कविताओं का संकलन प्रकाशित हुआ।

प्रेम कवित्री से प्रगतिशील लेखक आंदोलन का बनी हिस्सा। 

शादी जो एक अनचाहा बंधन थी, उससे अलग प्रेम की सांकरी गली। दो बच्चे, पति से तलाक, अधूरा प्यार लेकिन सफर अभी बाकी था। जीवन की डगर में फिर मिला एक हमसफर, जो चला हमेशा साथी बनकर। एक ऐसा रिश्ता जिसे कभी नाम देने की अवश्यकता ही न पड़ी। 

अमृता प्रीतम पंजाबी भाषा की पहली कवित्री हैं। वह हिन्दी और पंजाबी भाषा में लिखने वाली एक भारतीय उपन्यासकार, निबंधकार और कवित्री हैं।

उन्होंने कविताएं, कथा, जीवनियां, निबंध, पंजाबी लोक गीतों का संग्रह और आत्मकथा समेत 100 से अधिक किताबें लिखी हैं। जिनका कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद किया गया।

भारत पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुए नरसंहारों की पीड़ा को उन्होंने मार्मिक कविता अज्ज आंखा वारिस शाह नू के रूप में अभिव्यक्त किया। जिसके लिए उन्हें सबसे ज्यादा याद किया जाता है।

अमृता प्रीतम को उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्धि पिंजर (द स्केलेटन, 1950) से मिली। जिसमें उन्होंने पूरो नामक किरदार द्वारा महिलाओं के प्रति हिंसा, मानवता की हानि और जीवित भाग्य के प्रति अन्तिम समर्पण को दर्शाया। उनके इस उपन्यास पर पुरस्कार विजेता फिल्म, पिंजर (2003) बनाई गई।

उनकी महान रचनाओं में एक लंबी कविता सुनेहदे के लिए उन्हें 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। जिसे पाने वाली वह पहली महिला बनीं।

उन्हें 1982 में कागज ते कैनवस के लिए भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कारों में से एक ज्ञान पीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

वर्ष 1996 में उन्हें पद्म श्री और वर्ष 2004 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।

आइए जानते हैं पंजाबी साहित्यकार अमृता प्रीतम की जीवन यात्रा…

आरंभिक जीवन

अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 को ब्रिटिश भारत में पंजाब के गुजरांवाला में एक खत्री सिख परिवार में हुआ था। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। 

उनके माता-पिता ने उनका नाम अमृता कौर रखा था। उनकी मां राज बीबी, एक स्कूल अध्यापिका थीं और उनके पिता करतार सिंह हितकारी, जो ब्रिज भाषा के विद्वान व एक कवि होने के साथ एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक थे। उनके पिता सिख धर्म के प्रचारक भी थे।

जब अमृता कौर 11 वर्ष की थीं, उनकी मां का देहांत हो गया और वह अपनी मां के सानिध्य से दूर हो गईं। मां की मृत्यु के बाद उनके पिता उन्हें लेकर लाहौर बस गए। 

बढ़ती उम्र में बिना मां के अकेलेपन से घिरी अमृता कौर ने छोटी उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया।

आजादी से पहले

वर्ष 1935 में 16 साल की उम्र में उनकी शादी संपादक प्रीतम सिंह से हुई, जिनके साथ बचपन में लगभग 4 साल की उम्र में ही इनकी सगाई हो गई थी। शादी के बाद उनका नाम अमृता प्रीतम बदल गया। हालांकि वह अपनी शादी से खुश नहीं थीं, लेकिन उन्होंनेइसका विरोध भी नहीं किया।

वर्ष 1936 में उनकी कविताओं का पहला संकलन, अमृत लेहरान प्रकाशित हुआ। वर्ष 1936 से 1943 के बीच उनके आधा दर्जन कविता संग्रह आए। वह रेडियो पर अपनी कविताओं को पढ़ती थीं, जो उनके पति को खास पसंद न था।

अमृता प्रीतम ने अपनी यात्रा एक प्रेम प्रसंगयुक्त कवित्री के रूप में शुरुआत की, लेकिन फिर उन्होंने अपना स्टेयरिंग घुमाया और प्रगतिशील लेखक आंदोलन का हिस्सा बन गईं।

1943 बंगाल अकाल के बाद युद्धग्रत अर्थव्यवस्था की खुले तौर पर आलोचक भाव को उन्होंने अपने संग्रह लोक पीड़ ( People’s Anguish, 1944) के माध्यम से दर्शाया।

भारत विभाजन से पहले उन्होंने लाहौर में एक रेडियो स्टेशन पर भी काम किया।

भारत विभाजन

1947 भारत विभाजन के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में लगभग दस लाख लोग मारे गए। 28 वर्षीय अमृता प्रीतम पंजाबी शरणार्थी बन गई। उन्होंने लाहौर छोड़ा और दिल्ली बस गईं।

वर्ष 1947 में वह गर्भवती थी, उस समय वह जब देहरादून से दिल्ली की यात्रा कर रहीं थीं तब अपने हृदय की पीड़ा को उन्होंने एक कागज पर एक कविता के रूप में अभिव्यक्त की। 

अमृता प्रीतम की मार्मिक कविता अज्ज आखां वारिस शाह नू विभाजन की भयावहता को प्रगट करती, जिसके लिए वह आज भी याद की जाती हैं। यह कविता वह सूफी कवि वारिस शाह को संबोधित करती हैं, जो हीर-रांझा की दुखद गाथा के लेखक हैं। जिनके साथ वह अपना जन्म स्थान साझा करती हैं।

हालांकि वह पाकिस्तान में मोहन सिंह और शिव कुमार बटालवी जैसे अपने समकालीनों की तुलना में समान रूप से लोकप्रिय रहीं।

अमृता प्रीतम सामाजिक कार्यों से भी जुड़ी रहीं। सामाजिक कार्यकर्ता गुरु राधा किशन ने दिल्ली में पहली जनता लाइब्रेरी लाने की पहल की।

जिसका उद्घाटन बलराज साहनी और अरुणा आसफ अली ने किया और अमृता प्रीतम ने भी इस अवसर पर अपना योगदान दिया। जो आज भी दिल्ली के क्लॉक टॉवर में चल रही है।

अमृता प्रीतम के अपने पति प्रीतम सिंह से दो बच्चे हुए, बेटी कांडला और बेटा नवराज।

भारत विभाजन के बाद 

भारत विभाजन के बाद लाहौर से दिल्ली आने के बाद उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में उद्घोषक के रूप में कार्य किया।

शायर साहिर लुधियानवी से उनके हृदय में अटूट प्रेम जागृत हुआ। उस प्रेम डगर में उन्हें बाद में अकेले ही चलना पड़ा, जब गायिका सुधा मल्होत्रा शायर साहिर लुधियानवी के जीवन में आई।

साहिर लुधियानवी के प्रति उनके जुनून का अंदाजा 1986 में दशकों बाद उनकी एक डायरी में लिखी वह बात “आज मेरा खुदा मर गया” से लगाया जा सकता है। यह उन्होंने साहिर लुधियानवी के निधन वाले दिन लिखा था।

यह एक ऐसी प्रेम कहानी हैं, जो समझनी मुश्किल सी लगती हैं। साहिर लुधियानवी से उनकी पहली मुलाकात उनकी शादी के कुछ सालों बाद एक मुशायरे में हुई थी।

उन्होंने अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में साहिर लुधियानवी के प्रति अपने प्रेम के बारे में खुलकर लिखा है।

हृदय में शायर साहिर लुधियानवी के लिए प्रेम के चलते वर्ष 1960 में उन्होंने अपने पति से तलाक ले लिया। तलाक के बाद उनका काम बहुत अधिक नारीवादी हो गया। उनकी कई कहानियां और कविताएं उनके विवाह के दुखद अनुभव पर आधारित है।

अपने पति के अन्तिम दिनों में अपने मध्य कड़वाहट को कम करते हुए, वह दिन में दो बार उनसे मिलने जाती और उनके साथ कुछ घंटे बिताती।

अमृता प्रीतम ने वर्ष 1961 तक ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली की पंजाबी सेवा में काम किया। 

इमरोज से उनकी मुलाकात और नजदीकियां 

इमरोज जिनका जन्म का नाम इंद्रजीत सिंह था, वह 26 जनवरी 1927 को अविभाजित पंजाब में जन्मे थे। और ऑल इंडिया रेडियो में ही वह अमृता प्रीतम से मिले। इमरोज प्रसिद्ध कलाकार और कवि थे।

धीरे – धीरे अमृता प्रीतम के जीवन में साथी और प्यार की जगह इमरोज ने ली। वे दोनों साथ में रहने लगे, जो उस समय के हिसाब से बड़ा क्रांतिकारी निर्णय था। और वह दोनों हौज खास वाले अपने घर में साथ रहे।

इमरोज और अमृता प्रीतम का साथ 4 दशकों से अधिक अमृता प्रीतम के अन्तिम दिनों तक रहा। 

अमृता प्रीतम ने इमरोज के साथ मिलकर पंजाबी में एक मासिक पत्रिका नागमणि का संपादन 33 वर्षों तक किया। जिसमें इमरोज ने चित्रकार और डिजाइनर के रूप में काम किया। हालांकि विभाजन के बाद उन्होंने हिन्दी में भी खूब लिखा।

इमरोज ने अमृता प्रीतम की लगभग सभी किताबों के कवर डिजाइन किए और उन्हें कई चित्रों में चित्रित किया।

वह ओशो से बहुत प्रभावित हुई और ओशो की कई किताबों का उन्होंने परिचय लिखा, जिसमें एक नाम एक ओंकार सनातन भी शामिल है।

अब उन्होंने आध्यात्मिक विषयों और सपनों पर भी लिखना शुरू किया। जिसमें काल चेतना और अज्ञात का निमंत्रण जैसी किताबें आती हैं। 

उनके कई कार्यों का पंजाबी और उर्दू से अंग्रेजी, फ्रेंच, डेनिश, जापानी, मंदारिन और अन्य भाषाओं में अनुवाद किया गया है। जिसमें उनकी आत्मकथात्मक कृतियां काला गुलाब और रसीदी टिकट भी शामिल है।

अमृता प्रीतम ने काला गुलाब (1968), रसीदी टिकट (1976) और अक्षरों के साये शीर्षक से आत्मकथाएं भी प्रकाशित की।

अमृता प्रीतम की पहली किताब धरती सागर ते सिप्पियां का फिल्मांकन कादंबरी (1975) के रूप में किया गया। उसके बाद बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित डाकू (1976) फिल्म उनकी किताब उना दी कहानी पर आधारित है।

उनका उपन्यास पिंजर विभाजन के दंगो की कहानी के साथ साथ उस दौरान महिलाओं की दुर्दशा को भी प्रकट करता है। जिसमें उन्होंने दोनों देशों के लोगों की पीड़ा को दर्शाया है।

अमृता प्रीतम का उपन्यास पिंजर (1950) पर्दे पर चंद्र प्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित फिल्म पिंजर के रूप में आया। जो एक पुरस्कार विजेता फिल्म बनी। जिसकी शूटिंग राजस्थान और पंजाब के सीमावर्ती इलाकों में की गई।

उन्होंने 1986-92 में राज्य सभा की सदस्य के रूप में भी भुमिका निभाई।

पुरस्कार और सम्मान

अमृता प्रीतम पंजाब रत्न पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली व्यक्ति थीं, जिससे उन्हें पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह द्वारा सम्मानित किया गया।

उन्हें वर्ष 1956 में सुनेहदे (कविता संग्रह) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जिसे पाने वाली वह पहली महिला थीं।

उन्हें कागज ते कैनवास कविता संकलन के लिए 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार, भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कृत किया गया।

अमृता प्रीतम को 1969 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री और 2004 में भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 

वर्ष 2004 में ही उन्हें भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार साहित्य अकादमी फेलोशिप मिली।

अमृता प्रीतम को 1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय, 1973 में ही जबलपुर विश्वविद्यालय और 1987 में विश्व भारती सहित कई विश्वविद्यालयों द्वारा डॉक्टर ऑफ लिट्रेचर की मानक उपाधि से सम्मानित किया गया।

उन्हें वर्ष 1979 में बुल्गारिया गणराज्य द्वारा अंतरराष्ट्रीय वाप्तसारोव पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया।

उन्हें 1987 में फ्रांस सरकार द्वारा डिग्री ऑफ ऑफिसर डेंस, ऑर्डर डेस आर्ट्स एट डेस लेटर्स से सम्मानित किया गया 

उनके जीवन के अन्तिम दिनों में उन्हें पाकिस्तान की पंजाबी अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया। जिस पर उन्होंने कुछ यूं कहा कि बड़े दिनों बाद मेरे मायके को मेरी याद आई।

पाकिस्तान के पंजाबी कवियों ने भी उन्हें वारिस शाह और साथी सूफी कवियों बुल्ले शाह और सुल्तान बहू की कब्रों से एक चादर भेजी।

वर्ष 2007 में प्रसिद्ध गीतकार गुलजार द्वारा “अमृता रिसाइटेड बाय गुलजार” नामक एक ऑडियो एलबम जारी किया गया था, जिसमें अमृता प्रीतम द्वारा लिखी कविताएं गुलजार साहब ने सुनाई थीं।

31 अगस्त 2019 को गूगल ने डूडल के साथ उनकी 100वीं जयंती मनाकर उन्हें सम्मानित किया।

उनके महत्वपूर्ण कार्यों में 

उपन्यास : पिंजर; डॉक्टर देव; कोरे कागज, उनचास दिन; धरती, सागर और सीपियां; रंग का पत्ता; दिल्ली की गलियां; तेरहवां सूरज; यात्री; जिलावतन; हरदत्त का जिंदगीनामा 

आत्मकथाएं : काला गुलाब (1968); रसीदी टिकट (1976); शब्दों की छाया (2004)

लघु कथाएं : कहानियां जो कहानियां नहीं; कहानियों के आंगन में; मिट्टी के तेल की दुर्गंध

काव्य संकलन : अमृत लेहरान (1936); जिउंदा जीवन (1939); ट्रेल धोते फूल (1942); ओ गीतन वालिया (1942); बदलम दे लाली (1943); सांझ दे लाली (1943); लोक पीर (1944); पत्थर गीते (1946); पंजाब दी आवाज (1952); सुनेहदे (1955); अशोक चेती (1957); कस्तूरी (1957); नागमणि (1964); इक सी अनीता (1964); चक नंबर चट्टी (1964); उनिंजा दिन (1979); कागज ते कैनवास (1981); चुनी हुई कविताएं; एक बात

निधन 

लंबी बिमारी के कारण 31 अक्टूबर 2005 को 86 वर्ष की उम्र में उनकी नींद में ही मृत्यु हो गई। उनकी सबसे अधिक मर्मस्पर्शी कविता जो अन्तिम समय में उन्होंने इमरोज के लिए लिखी थी, “मैं तैनु फिर मिलांगी” थी।

उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा अनुसार किया गया, जिसमें कोई शोकसभा नहीं बुलाई गई। उनकी अंतिम संस्कार यात्रा पर उन्हें उनके बच्चे और साथी इमरोज ही ले कर गए।

अमृता प्रीतम के दो बच्चे बेटी कांडला, बेटा नवराज क्वात्रा बहू अल्का और पोते – पोतियां कार्तिक, नूर, अमन और शिल्पी है।

अमृता प्रीतम की मृत्यु के बाद इमरोज ने कविताएं लिखनी शुरू की। और अमृता के प्रति अपने अटूट प्रेम को कविताओं के माध्यम से साझा किया।

वर्ष 2012 में उनके बेटे नवराज क्वात्रा की उनके बोरीवली अपार्टमेंट में हत्या कर दी गई थी।

22 दिसंबर 2023 को 97 साल की उम्र में अमृता प्रीतम के साथी इमरोज का निधन हो गया। वह अपने अन्तिम दिनों में अमृता प्रीतम की बहू अल्का क्वात्रा के साथ मुंबई में रहते थे।

इमरोज ने एक बार कहा था कि जब आप किसी से प्यार करते हैं और आप अपने प्यार के बारे में आश्वस्त हैं, तो आप रास्ते में आने वाली बाधाओं को नहीं गिनते।

लेखिका उमा त्रिलोक ने अमृता प्रीतम और इमरोज पर आधारित किताब “अमृता – इमरोज : ए लव स्टोरी” लिखीं है जिसे 2006 में पेंगुइन ने प्रकशित किया। 

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