भारत की पहली स्वतन्त्रता सेनानी रानी जिन्हें दी गई अभया रानी की उपाधि | Biography of Abbakka Chauta in Hindi

Biography of Abbakka Chauta in Hindi

रानी अब्बक्का जिन्हें अभया रानी की उपाधि दी गई,भारत की पहली स्वतन्त्रता सेनानी हैं जिन्होंने 500 साल पहले ही पुर्तगालियों को धूल चटा दी थी।

पुर्तगालियों से लोहा लेने वाली रानी अब्बक्का चौटा तुलुनाडू की रानी थीं।

इस संसार में कमजोर कोई नहीं जन्मा। स्त्री और पुरूष को अगर देहभाव से ही देखना है तो कुछ नियमावली समाज ने गढ़ दी है। वीरता का बीज सभी बालक – बालिकाओं में आरंभ से भरा जाता है। 

हमारा देश साक्ष्य है ऐसी महान वीरांगनाओं का जिनकी बहादुर नारी जाति के लिए प्रेरणा है।

महान वीरांगनाओं में एक नाम है रानी अब्बक्का चौटा। हम इनसे पहले रानी लक्ष्मीबाई, रानी नायकी देवी, लोकमाता अहिल्या बाई होलकर, रानी चेन्नम्मा आदि श्रेष्ठ वीरांगनाओं से परिचित करा चुके हैं।

रानी अब्बक्का ने तटीय कर्नाटक के कुछ भाग पर शासन किया। पुट्टिगे उनके राज्य की राजधानी थी। उल्लाल का बंदरगाह शहर उनकी सहायक राजधानी के रूप में कार्य करता था। उल्लाल व्यापारिक दृष्टी से श्रेष्ठ था इसलिए पुर्तगाली उस पर अपना कब्जा करना चाहते थे। 

लेकिन रानी अब्बक्का उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा थीं। उन्होंने चार दशकों तक पुर्तगालियों के प्रत्येक हमले को विफल किया।

वह आखिरी ऐसी व्यक्ति थी, जिन्हें अग्निबाण चलाने का कौशल था। 

उनकी इसी बहादुरी के कारण उन्हें अभया रानी (निडर रानी) के नाम से जाना जाता है। 

उपनिवेशवाद से लड़ने वाली वह पहली भारतीय थी। और उन्हें भारत की पहली महिला स्वतन्त्रता सेनानी भी माना जाता है।

जैन रानी अब्बक्का ने न केवल पुर्तगाली सेना को विफल कर दिया, बल्कि पुर्तगाली सशस्त्र बलों के विरुद्ध विभिन्न धर्मों के लोगों को एकजुट करने की अपनी क्षमता का भी प्रदर्शन किया।

आइए जानते हैं तेजस्वी वीरांगना रानी अब्बक्का चौटा की महान गाथा…

प्रारंभिक जीवन

रानी अब्बक्का चौटा का जन्म उल्लाल के चौटा राजघराने में हुआ था।

राजा थिरुमाला राय तृतीय विजयनगर साम्राज्य के सामंत जैन राजा थे। जो मूल रूप से 12वीं शताब्दी में गुजरात से तुलुनाडु (कर्नाटक के वर्तमान दक्षिण कन्नड़ जिले, केरल के उडुपी और कासरगोड जिले के कुछ हिस्से) में स्थानांतरित हुए थे। उल्लाल उनकी राजधानी थी।

राजा थिरुमाला राय तृतीय, रानी अब्बक्का चौटा के चाचा थे।

इस वंश में मातृवंशीय परम्परा की मान्यता थी। मातृवंशीय परम्परा प्राचीन समय की ऐसी सामाजिक व्यवस्था है, जहां महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती।

उन्हें बचपन से ही युद्धकला जैसे तीरंदाजी, धनुर्विद्या, और घुड़सवारी इत्यादि का प्रशिक्षण मिला। उन्होंने युद्धनीति, सैन्य रणनीति, राजनितिक कूटनीति, प्रशासनिक रणनीति और अन्य राज्य कला के गुणों में महारत हासिल की।

मातृवंशीय परम्परा के नाते राजा थिरुमाला राय ने वर्ष 1525 में रानी अब्बक्का चौटा को रानी का ताज पहनाया। 

रानी अब्बक्का चौटा का विवाह मैंगलोर के बंगा रियासत के राजा लक्ष्मप्पा अरसा बंगराज द्वितीय से हुआ। 

पड़ोसी बंगा राजवंश के साथ वैवाहिक संबंधों ने स्थानीय शासकों के गठबंधन को और मजबूती दी।

लेकिन यह शादी अल्पकालिक रही और वह अपनी तीन बेटियों को ले वापस उल्लाल लौट आईं।

उनके पति बाद में पुर्तगालियों के खिलाफ युद्ध में उनसे बदला लेने की भावना से पुर्तगालियों के साथ संधि कर लेते हैं।

उनके राज्य की राजधानी पुट्टीगे थी। जबकि उल्लाल का बंदरगाह शहर उप-राजधानी था। उल्लाल एक समृद्ध बंदरगाह था और उस दौरान मैंगलोर बंदरगाह का हिस्सा था। जो अरब और पश्चिम के अन्य देशों के साथ मसाला व्यापार के केंद्र के रूप में प्रमुख था।

यह एक व्यापारिक केंद्र था, पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश इस क्षेत्र के व्यापार मार्गों पर नियंत्रण के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते।

हालाँकि, स्थानीय सरदारों का प्रतिरोध इतना प्रबल था कि वे आगे नहीं बढ़ सके। 

रानी अब्बक्का ने अपने शासन में सभी जाति और धार्मिक आधारों पर जैन, हिंदू और मुसलमानों सहित स्थानीय नेताओं को एकजुट कर अच्छा प्रतिनिधित्व प्रदर्शित किया।

ऐतिहासिक शोध से पता चलता है कि 16वीं शाताब्दी में रानी अब्बक्का के शासन के दौरान, बेरी (beary) पुरुषों ने नौसेना बल में नाविक के तौर पर कार्य किया। रानी ने मलाली में बांध के निर्माण के समय व्यक्तिगत रूप से निगरानी की थी। उन्होंने बोल्डर कार्य हेतु बेरी लोगों को नियुक्त किया। 

उनकी सेना में भी सभी संप्रदायों और जातियों के लोग शामिल थे। उन्होंने कालीकट के जमोरिन के साथ भी गठबंधन किया। और दोनों ने मिलकर पुर्तगालियों को खदेड़ा।

उन्होंने बिदनुर के शक्तिशाली राजा वेंकटप्पनायक से भी सहायता मांगी और उनका समर्थन प्राप्त किया। 

पुर्तगालियों का भारत में प्रवेश

7वीं शताब्दी अंत से, भरत के पश्चिम तट और अरब प्रायद्वीप के समुदाय के मध्य मुख्यत: मसालों, वस्त्रों, घोड़ों आदि का समुद्री व्यापार फल-फूल रहा था। जिस कारण यूरोपीय शक्तियां भारत जाने का समुद्री मार्ग खोजने के लिए आतुर हो रहीं थीं।

वास्को डी गामा एक लम्बी समुंद्री यात्रा के बाद 1489 में कालीकट, भारत पहुंचे। अत: पुर्तगाली, भारत पहुंचने का समुंद्री मार्ग खोजने वाले यूरोपीय थे।

वास्को डी गामा द्वारा भारत से यूरोप तक समुद्री मार्ग की खोज के 5 वर्षों पूर्व, साल 1503 में कोचीन केरल में एक बंदरगाह की स्थापना की।

पुर्तगालियों ने कोचीन में अपना पहला किला बनाया। इसके बाद हिंद महासागर क्षेत्र में किलों की एक श्रृंखला की स्थापना करते चले गए – भारत, मस्कट, मोज़ाम्बिक, श्रीलंका, इंडोनेशिया, यहाँ तक कि चीन में मकाऊ तक।

16वीं शताब्दी तक, इस क्षेत्र में पुर्तगाली प्रभुत्व को किसी भी अन्य यूरोपीय शक्ति द्वारा चुनौती नहीं दी गई।

पुर्तगालियों ने अपनी बेहतर नौसैनिक तकनीक के साथ, वास्को डी गामा की ऐतिहासिक यात्रा के बीस वर्षों के भीतर भारत के सभी मसाला मार्गों का नियंत्रण हाथों में ले लिया।

हिंद महासागर में व्यापार हेतु भारतीय, अरब, फारसी और अफ्रीकी जहाजों के लिए एक मुक्त व्यापार क्षेत्र था, जहां अब पुर्तगालियों ने एक सशुल्क परमिट ( कार्टाज़ ) लगा दिया।

गोवा पर अपना नियन्त्रण करने के बाद व्यापारिक आपूर्ति के लिए उनकी नज़र मैंगलोर क्षेत्र पर थी। 

पुर्तगाली कमांडर एडमिरल डॉन अल्वारो डी सिल्विया 1525 में गोवा के रास्ते आए और मैंगलोर बंदरगाह पर कब्जा कर लिया। बाद में, उन्होंने दक्षिण केनरा तट पर हमला किया और मैंगलोर के बंदरगाह को नष्ट कर दिया।

उनका अगला लक्ष्य उल्लाल था, जो एक संपन्न बंदरगाह शहर था जो पश्चिमी घाट की हरी-भरी चोटियों और अरब सागर के बीच बसा था।

पुर्तगालियों के साथ युद्ध

17वीं शताब्दी के दौरान पुर्तगालियों से भारत में मसाला व्यापार पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली थी।

पुर्तगालियों की उपस्थिति से उत्पन्न खतरे को रानी अब्बक्का चौटा भांप चुकीं थीं और अपनी पूरी दृढ़ता से उनका विरोध करने को उपस्थित थीं।

रानी अब्बक्का ने पुर्तगालियों को किसी भी प्रकार का कोई कर देने से मना कर दिया था।

पुर्तगालियों के हमलों के बाद भी उनके जहाज अरब के साथ व्यापार करते रहे। 

मोगावीरस और बिलावा तीरंदाजों से लेकर मप्पिलाह चप्पुओं तक, सभी जातियों और धर्मों के लोगों को उनकी सेना और नौसेना में जगह मिली।

वर्ष 1555 में पुर्तगालियों ने हमला किया जिसकी कमान एडमिरल डॉन अलवरो दी सिल्वेरा ने संभाली। इस युद्ध में रानी ने आकर्मणकारियों को खदेड़ दिया।

वर्ष 1557 में पुर्तगालियों ने मैंगलोर को लूट कर बर्बाद कर दिया। साल 1558 में भी उन्होंने मैंगलोर पर बर्बरता की। मंदिर लूटे, जहाजों को जला दिया। बूढ़े, युवाओं और महिलाओं की हत्या की गई। और शहर भी आग के हवाले किया।

वर्ष 1567 में पुर्तगालियों ने विनाशक रूप से उल्लाल पर हमला किया। लेकिन रानी अब्बक्का की रणनीति के सामने टिक न सके।

लेकिन पुर्तगाली तो रानी को हराने की कसम खाए हुए थे फिर वर्ष 1568 में जोआओ पिक्सोटो, एक पुर्तगाली जनरल और सैनिकों का एक बेड़ा पुर्तगाली वायसराय एंटोनियो नोरोन्हा द्वारा भेजा गया था। वे उल्लाल शहर पर कब्ज़ा करने में कामयाब रहे और शाही दरबार में भी प्रवेश कर गए।

पर रानी अब्बक्का उनके हाथ न आईं। वीर रानी कहां इन घुसपैठियों से डरने वाली थीं। रानी वहां से भाग निकलीं और मस्जिद में शरण ली।

उसी रात उन्होंने अपने 200 सैनिकों को इकट्ठा किया और बोल दिया पुर्तगालियों पर हमला। इस युद्ध में जनरल पिक्सोटो मारा गया। 70 पुर्तगाली सैनिकों को बंदी बना लिया गया और कई पुर्तगाली पीछे हट गए।

आगे के हमलों में रानी अब्बक्का और उनके समर्थकों ने एडमिरल मैस्कारेनहास की हत्या कर दी। और मैंगलोर का किला खाली करने के लिए पुर्तगालियों को मजबूर कर दिया।

वर्ष 1569 में पुर्तगालियों ने मैंगलोर का किला पुन: हासिल कर लिया। साथ ही कुंदापुर (बसरूर) पर भी कब्जा कर लिया।

इन सफलताओं के बाद भी रानी अब्बक्का ने उनके नाक में दम कर रखा था और उनके लिए खतरे का स्त्रोत बनी रहीं।

अब पुर्तगालियों ने रानी के पति से संधि की, रानी अब्बक्का से बदला लेने की चाहत ने इतना अंधा बना दिया की पुर्तगालियों का समर्थन कर उनकी उल्लाल पर हमला करने में मदद की। 

लेकिन सिंहनी सी रानी ने भयंकर लड़ाइयों में डट कर सामना किया।

वर्ष 1570 में, पुर्तगालियों का विरोध कर रहे अहमद नगर के बीजापुर सुल्तान और कालीकट के जमोरिन के साथ रानी अब्बक्का ने गठबंधन बनाया। 

जमोरीन के सेनापति कुट्टी पोकर मार्कर ने रानी की ओर से युद्ध किया। और मैंगलोर में पुर्तगाली किले को नष्ट कर दिया। लेकिन जब वह लौट रहे थे, तब पुर्तगालियों ने उन्हें मार डाला।

पुर्तगाली अन्य शासकों को प्रेरित करने वाली रानी अब्बक्का से परेशान हो गए थे। रानी के साथ किसी भी गठबंधन को अवैध बनाने के लिए पुर्तगालियों ने कई आदेश पारित किए।

अंतिम युद्ध

रानी अब्बक्का चौटा को पुर्तगालियों की ताकत का आभास था। जब उन्होंने देखा की तटीय क्षेत्र की कृषक महिलाएं, धान काटने के लिए अपने हाथों में मुड़ी हुई तलवार जैसा कुछ लिए हुए हैं, तब रानी ने अपने राज्य की सभी महिलाओं को दुश्मनों से लड़ने के लिए युद्ध का अभ्यास करने का निर्देश दिया।

उस धान काटने वाली तलवार में रस्सी बांधकर और उसे जोर-जोर घुमाकर शत्रु को भगाने का प्रशिक्षण महिला सेना को दिया। उस सेना का नाम “पोन्नुले पाडे (महिला बटालियन) रखा गया। उन्होंने महिला सेना की मदद से कुछ लड़ाइयां जीती।

पगलाएं पुर्तगालियों ने एंथोनी दी नोरोन्हा, गोवा के पुर्तगाली वायसराय को उल्लाल पर हमला करने का निर्देश दिया।

वर्ष 1581 में युद्धपोतों के एक समूह द्वारा समर्थित 3000 पुर्तगाली सैनिकों ने सुबह से पूर्व ही आश्चर्यजनक ढंग से उल्लाल पर हमला कर दिया।

रानी अब्बक्का अपने पारिवारिक मंदिर की यात्रा से लौट ही रही थी कि उन्हें पकड़ लिया गया। लेकिन तीव्रता से वह अपने घोड़े पर सवार हुईं और भाग निकली। उन्होंने अपने सैनिकों का एक भयंकर जवाबी हमले के प्रति नेतृत्व किया।

उनका हृदय को भेदने सा युद्ध घोष था- ” मातृभूमि की रक्षा करो। उन दुश्मनों से जमीन और समुद्र पर लड़े। सड़कों और समुद्र तटों पर लड़े। उन्हें वापस पानी में भेज दो।” वह दहाड़ती आवाज चारों दिशाओं में गूंज उठी।

रानी अब्बक्का और उनके सैनिकों ने पुर्तगाली जहाजों पर अग्नि बाण छोड़े। उनके कई जहाज जल गए। पुर्तगाली सेना उनकी सेना से बहुत विशाल थी, फिर भी वह लड़ती रही। दूसरी ओर उनके पति ने उनकी युद्ध रणनीतियों, गुप्त रास्ते जैसी अहम जानकारियों के बारे में भी पुर्तगालियों को बता दिया था। 

युद्ध में रानी काफी घायल हों गईं । और उन्हें बंदी बना लिया गया। लेकिन निडर रानी ने तो जेल में भी विद्राहो कर दिया। पुर्तगालियों से अंतिम सांस तक लड़ती रही और वर्ष 1582 में बहादुर वीरांगना शहीद हो गई।

रानी अब्बक्का की विरासत उनके समान उनकी बहादुर बेटियों ने संभाली और पुर्तगालियों से तुलुनाडु की रक्षा जारी रखी।

एक योद्धा रानी जिन्होंने अपनी स्वतन्त्रता और मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। कम सैन्य शक्ति के साथ भी उन्होंने अपने पूरे शासनकाल में पुर्तगालियों को नचा कर रखा। आज उस बहादुर रानी की गाथा को इतिहास की किताबों ने जैसे भुला सा दिया है।

वीर रानी अब्बक्का महोत्सव और सम्मान 

आनंद की बात है की दक्षिण कन्नड़ क्षेत्र की लोक संस्कृति में उल्लाल की निडर रानी आज भी जीवंत हैं। दैव कोला और यक्षगान के माध्यम से रानी अब्बक्का की बहादुरी की कहानी को नई पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।

रानी अब्बक्का चौटा की कांस्य प्रतिमाएँ उल्लाल और बैंगलोर दोनों में स्थापित की गई हैं।

बंतवाल में तुलु बदुकु संग्रहालय भी है, जो लगभग 3000 कलाकृतियों को प्रदर्शित करता है। जिसे एक इतिहासकार, प्रोफेसर तुकाराम पुजारी ने उल्लाल की रानी अब्बक्का चौटा की स्मृति में बनवाया।

वर्ष 2003 में, भारतीय डाक द्वारा रानी अब्बक्का को समर्पित एक डाक टिकेट जारी किया गया।

वर्ष 2009 में, भारतीय कोस्ट गार्ड ने उनके नाम पर भारतीय सीमा की करने के लिए आई सी जी एस रानी अब्बक्का नाम का जहाज तैनात किया।

उल्लाल में एक वार्षिक उत्सव मनाया जाता है, जिसमें पिछले वर्ष की विभिन्न क्षेत्रों में योगदान देने वाली बहादुर और प्रतिष्ठित महिलाओं को वीर रानी अब्बक्का पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है।

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